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Tuesday, November 12, 2013

गीत- गाओ टाबरों

गजेन्द्र सिंह शेखावत 

गीत- गाओ टाबरों,
थारा मुलकबा सूं देश हरखसि 
थे ही तो हो आगला टेशण 
जमाना रे साथै करो खूब फैशन 
पण याद राखो बुजुर्गा री बातां 
बे मुस्किल घडी री रातां 
जोबन रो मद भी चढ़सी 
कुटुंब कबीलो भी बड़सी 
प्रणय की भूलभुलइया में 
प्रियतमा की आकृष्ट सय्या में 
भूल मत जाज्यो ज्ञान की सीख 
मत छोड़ज्यो पुरखां का पगां री लीक 
थे ही घर, गांव,परिवार ,रास्त्र री अनमोल थाती हो 
जीवन रूपी दीया री,  बिन जळी बाती हो|
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Saturday, October 26, 2013

चुनावी समर

गजेन्द्र सिंह शेखावत 

बज उठी दुन्दुभिया,हो गया एलान लोकशाही समर का
धूर्त शकुनियो ने कस  लिया कमरबंध अपनी कमर का ।

सावधान  । निर्लज्ज आयेगा बस्ती में भिखारी बनकर ।
निसंकोच करेगा आलाप , वह मंच पर तनकर |

 जादूगरी दिखायेगा शब्दों की गलियों नुक्कड़ कुचों पर
भीड़ में इन्सान नहीं वोट गिने जायेंगे और नजर होगी मतदान बूथों पर |

भावनायो ,सूरा के पैमानों से बहकाएंगे,तीर तरकश में होंगे अनेक
क्षेत्र ,ढाणी,गाँव ,जाति,धर्म  के अनुपात को देखकर देंगे उन्हें फेंक |

कौन पूछे गा उनसे की विकाश का मुह किधर है?
भूखा नंगा भारत फुटपाथ पर देखो इधर है  |

पूंजीपति-भ्रष्ट ,मुनाफाखोर,कालाबाजारियों की बनाते तुम कोठिया
सर्वहारा वर्ग के पेट से दूर मत करो  दो जून की रोटिया  ||

Friday, August 30, 2013

भारत निर्माण करे

गजेन्द्र सिंह शेखावत 

देश  की अर्थव्यवस्था का क्यों ना चीर- हरण करे
आओ इसी तरह भारत निर्माण करे ।

देश जाए भाड़ में , कोई जिए -कोई मरे
हम सिर्फ अपना पेट भरें
 आओ इसी तरह भारत निर्माण करे ।|

भारत के मुखोटे को ओढ़े विदेशी राज करे
है कैसी यह विडंबना समझ से परे
आओ इसी तरह भारत निर्माण करे |

Tuesday, August 6, 2013

नाका का डुंगर" -और उससे जुडा ग्रामीण जीवन

गजेन्द्र सिंह शेखावत

ककराना गाँव को क्षेत्रफल की द्रस्ती से देखे तो मिश्रित रूप द्रस्टीगोचर होता है । गाँव के अंतर्गत लगभग १५००० बीघा का रकबा है| जिसमे से ९००० बीघा भूमि पर पहाड़,टीले व् बारुनी है| शेष ६००० बीघा सिंचित भूमि है | गाँव के पूर्व दिशा में अरावली पर्वत की पहाडियों की लम्बी श्रंखला है । इस काले पर्वत को लोग "नाका वाला डुंगर"के नाम से पुकारते रहे है ।इस पर्वत श्रंखला के आस पास भेड़ ,बकरी ,मवेशी पालको को बारह मास चारा,पेड़ों की पत्तिया आदि उपलब्द होती है । नाका वाला डुंगर की गुर्जर समाज की आजीविका में मुख्या भूमिका रही है | इनके पशुओ के "रेवड़"इस पर्वत के आगोश में अपनी उदरपूर्ति करते है |

लगभग २५ वर्ष पहले तक जब यह पर्वत जंगलात(वन) विभाग के नियंत्रण में नहीं था तब अधिकांशतः गाँव वासी इस पर्वत की लकडियो का उपयोग जलाने के रूप में करते थे ।सुबह भोर में युवकों की टोली अपने खान -पान का सामान व् पानी आदि लेकर नाका के इस पहाड़ की और कुच कर जाते थे ।नाका के इस पहाड़ की एक विशेष जगह है "साधू की गोडी "।इस स्थान पर बारहों मास स्रावित एक छोटा सा जल- श्रोत है ।इससे निकला जल रिस कर पत्थर की कुण्डी में इकठा होता रहता है । बताते है किसी समय में यहाँ एक सिद्ध महात्मा ने तपस्या की थी ।उसि के परिणाम स्वरुप इस पवित्र स्थान पर पानी का यह श्रोत बना था ।गर्मी की तपती दोपहरियों में गडरियो का अपनी प्यास बुझाने का एकमात्र श्रोत यही है । जलविहीन इस पर्वत पर इस श्रोत में से पानी का अल्प रिसाव आश्चर्यजनक व् श्रधा का केंद्र है |

भादो के महीने में अंचल के प्रसिद्ध सुंदरदास बाबा के जाने वाले पैदल मेलार्थियों का इस पहाड़ से जाने का ही शोर्ट कट रास्ता हुआ करता था | जो अलसुबह भोर में जयकारो के साथ कूच करते थे ।

आम दिनों में लोग यहाँ से लकडियो को बीनते ,और उनके सुगठित गठर बनाते थे ।पर्वत का मुख्य फल "डांसरिया" चुनते और सामूहिक मस्ती से लगभग २-३ किमी की दुरूह यात्रा को पार करते थे ।दोपहर होते-होते गाँव की सीमाओं में लकड़ियों के बण्डल सर पर रखे थके -मांदे महिला और पुरुषों का झुण्ड छोटे- छोटे टुकडो में आगे पीछे प्रवेश करता था।समय कितना तेजी से बदलता है , आज के इस सिलेंडर दौर के युवा क्या जाने तब चूल्हा कैसे जलता था ।

Sunday, July 28, 2013

सावण आयो री सखी, मन रौ नाचै मोर

गजेन्द्र सिंह शेखावत 

सावण आयो री सखी, मन रौ नाचै मोर ।
जल बरसाव बादळी, अगहन लगी चहूं और ।।

झड़ लागी सावण की ,टिप -टिप बरसै मेह
यौवन पाणी भिजतां, तापे सगळी देह ।।

झिर -मिर मेवो बरसता, बिजली कड़का खाय ।
साजन का सन्देश बिना, छाती धड़का खाय ।।


काली -पीली बादळी, छाई घटा घनघोर ।
घर -जल्दी सूं चाल री, बरसगो बरजोर ।।

गगन मंडल सूं उतरी, तीजा चारुं मेर।
रेशम -रेशम हुयी धरा, खिलगा जांटी - केर ।।

सावन का झुला पड्या, गीतड़ला को शोर ।
नाडी-सरवर लौट रहया, टाबर ढांढ़ा - ढोर ।।

चित उचटावे बीजळी, पपिहो बैरी दिन -रैण।
"पिहू-पिहू" बोले मसखरो, मनड़ो करे बैचैण ।।

गुलगला को भोग ल्यो, गोगा करो मैहर।
पाछ सगळा जिमस्यां, थान्को धुप्यो खैर ।।
तीज - सिंझारा,रखपुन्यूं, घेवर रौ घण चाव ।
हिंडा - हिंडू बाग़ में, सजधज करूँ बणाव ।।


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सावन में पूर्णरूप से श्रंगारित उदयपुरवाटी की वादियाँ

चित्र में जलराशी से लबालब कोट बांध
सावन का पवित्र महिना चल रहा है इस समय में उदयपुरवाटी की रूखी सुखी लगने वाली ये पहाड़िया हरीतिमा की चुनर ओढ़े पूर्णरूप से श्रंगारित है ।सावन भादवे के महीने में ये वादियाँ मन को मोह लेती है व् यहाँ बने तीर्थ अपनी और भक्तो को आकृष्ठ करते है ।इस समय में माँ मनसा पीठ ,लोहार्गल,शाकम्भरी माता ,किरोड़ी धाम ,कोट बांध आदि के जलाशय चटानो के सीनों से रिसकर आने वाले शीतल जल से परिपूरित है ।इस सोमवार से शिव भक्त कावडों में पवित्र जल भरकर भोलेनाथ का अभिषेक करेंगे तो कुछ सैर सपाटे के लिए यहाँ की वादियों को निहारने के लिए जाते है ।
भक्तिमय वातावरण से ओतप्रोत इन तीर्थो की सुरम्य उप्यतिकाए सैलानियों की पसंदीदा व् रूह को शुकून देने वाले स्थान रहे है ।

Thursday, July 25, 2013

नीम का पेड़

गजेन्द्र सिंह शेखावत 

घर के सामने खड़ा वो नीम का पेड़ ।
उसने दी छाया ,और बचाया सूर्य की प्रचंड किरणों से
वह साक्षी रहा हर अछे -बुरे समय का
घर के -आंगन में फेकता था पकी -निमोलियाँ ।
शायद यही उसका ख़ुशी व्यक्त करने का था तरीका ।
तोते -गोरयां ,मोर ,चिडियों की चहचाहट शाम -सुबह को होती ।
उनकी घर आने की ख़ुशी को अपने आंचल में डांप लेता था वह ।
सचमुच कितना दरियादिल था
कभी कुछ नहीं चाहा,जो बना देता रहा ।
यहाँ तक की जाते -...जाते भी अपना मूल्य दे गया था ।

अब उस जगह पर है सूरज की किरणों का डेरा
न पक्षियों का गुंजन ,बस रह गया एक अनजाना सा खालीपन>>>

Thursday, July 11, 2013

सूबेदार ठाकुर पाबुदान सिंह शेखावत का महल.

गजेन्द्र सिंह शेखावत 

अंग्रेजी हुकूमत के समय सेना में सूबेदार रहे ठाकुर पाबुदान सिंह शेखावत के द्वारा अपने रनिवास के लिए बनवाया हुआ खुबसूरत महल.

यह महल निश्चित ही उस समय में ककराना का सबसे सुंदर भवन रहा था ।बताते है इसके निर्माण के समय में पत्थर के खम्बे,कंगूरे ,आदि को ऊँटों पे लाद कर लाया गया था ।व् ऊपर चढ़ाया गया था ।इसकी चमकदार,मखमली पुताई में प्रुयुक्त चुना -पत्थर को लोडी-सिलावट के ऊपर बहुसंख्य मजदूरो के द्वारा घिसाई करके चिकना बनाया गया था ।महल पर लगे कंगूरे व् रंगीन कांच के रोशनदान दूर से ही महल के आकर्षण को बया करते थे ।ठाकुर पाबुदान सिंह पेंतालिषा के प्रमुख व्यक्तियों में गिने जाते थे ।वे  राजपूत समाज की कुरीतियों के खिलाफ  थे ।उन्होंने उन्हें दूर करने का प्रयत्न किया ।वे परम गो -भक्त थे |

स्वामी विवेकानंद जी और खेतड़ी दरबार अजीत सिंह जी में प्रगाढ़  मित्र थी । स्वामी जी कहा करते थे "हम दोनों एक साथ इस धरा एक दुसरे के पूरवज के रूप में अवतरित हुए है ,इस प्रकार कुछ भी मांगने व् लेने में मुझे कोए संकोच नहीं होता । एक और एक धर्म रक्षक राजा तो दूसरी और एक धर्म रक्षक सन्यासी ।

सूबेदार पाबुदान सिंह की खेतड़ी दरबार से मित्रता रही । अपने रनिवास के लिए बनवाया गया महल में बताते है उनका सहयोग रहा था | गाँव की जोशियो की जोड़ी भी खेतड़ी की ही देन  है । समय के अनुसार गणना  करने से ही निश्चित कर सकते है की वो अजीत सिंह जी का समय था अथवा उनका पूर्ववर्ती काल ।

उन्होंने तत्कालीन समय में समाज में कन्या -भूर्ण जैसी कुरीति के खिलाफ आवाज बुलंद की । अंग्रेजी हुकूमत में भारतीयों का बड़े पद तक पहुचना असंभव था ।परन्तु वह अपनी काबिलियत से सूबेदार के पद तक पहुचे  उन्होंने जीवन में दो विवाह किये । परन्तु कोई संतान नहीं हुयी ।महल में राजदरबार से भेंट स्वरुप प्राप्त हुयी अपार धन सम्पदा ,बहुमूल्य चित्र आदि उनके स्वर्गवास के पश्चात बहुत से हिस्सों में बंट गए । आज समय के साथ साथ उस महामानव का कृतित्व तो धूमिल हो गया लेकिन यह महल आज भी  नाम को यदा -कदा  स्मरण करवा देता है |


Monday, July 8, 2013

पित रंग की चुनर ओढ़े...


 

गजेन्द्र सिंह शेखावत

पित रंग की चुनर ओढ़े, खेत मेरे लहराए
फागुन की मद-मस्त बहार, हुक सी जगाये ||
कुदरत भी रंग बरसाए ,अपने कैनवास से
वृद्ध भी जवां हुआ, मस्त फागुन मास में ।|


कोयल -पपीहा गाए गीत, मधुर मधुमास में
बिरहा का अंतर भी तडफे, पिया मिलन की आस में ।|

चंग-मंजीरे की थापे, गूंजे आधी रात में
देख निहारे गोरी चढ़कर, घर की ड्योढ़ी - छात में ।|


यौवन फिर से दस्तक देता, बूढी जर्जर काया में
मद मस्त हो झूम उठा मन ,गीत प्रेम के गाया में ।|

बच्चों की टोली खेले धोरों पर ,उज्जवल धवल रात में
सब मिलजुलकर एक हो यहाँ ,भूले जात-पांत ने।|


फागुन की सतरंगी सीख, जीवन है जोश ,आशा का
प्रकृति के सौम्य रूप को जानो ,मान करो मूक भाषा का ।|


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Thursday, July 4, 2013

सकड़ व् सांचे देवीय अवतार - श्री १००८ सतीबाजी महाराज-

गजेन्द्र सिंह शेखावत 

घोडा माथे बीराजता, सिद्द करता सब काज ।
पिरथम थारो सुमरण करू,सती -बाजी महाराज ।।

गर्भगृह में ज्योत प्रज्वलन  
ककराना ग्राम के दक्षिण दिशा में दीपपुरा मार्ग पर एक ऊँचे टीले के निचे ढलान भाग पर श्री सती -बाजी महाराज का मंदिर अवस्थित है ।इनके अवतरण के बारे में सुना जाता है वह लगभग २५० वर्ष पूर्व का वह समय रहा होगा । इनके पति का नाम दूल सिंह शेखावत था व् इनका नाम चत्तर कँवर था। विवाह के कुछ समय पश्चात चतर कँवर के पति दूल सिंह का अल्पायु में आकस्मिक निधन हो गया था । पति के अकश्मिक निधन के पश्चात इनमे देवत्व-तेज जाग उठा था।और संसारिक जीवन की क्षण -भंगुरता व् जीवन से निर्लिप्त होकर इनमे सतीत्व का भाव बना था ।
उस काल में अनेकों गाँव-ठिकानो में कुलीन राजपूत स्त्रियों में ईश्वरीय उपासना की प्रगाढ़ता व् परस्पर वैवाहिक संबंधों की मजबूती से पति के स्वर्गवास के पश्चात सती-जती होने के अनेकों उदाहरण इतिहास के सुनहरे पन्नो पर दर्ज है ।राजस्थान के अनेकानेक गाँव -ढाणियों में झुंझार -सती के मंदिर -देवरे इनके प्रमाणों को पुष्ठता प्रदान करते है ।
सती जी का जन्म चुरू जिले के एक गाँव में जन्म हुआ था। यह बिदावत -राठोड राजपूतों की पुत्री थे ।
बाजी ने सती होने से पूर्व बताया की केड गाँव के एक ठाकुर की गर्भवती घोड़ी है ।उस घोड़ी के गर्भ में जिव अंश के रूप में मेरे पति का जीवांश अवस्थित होगा। जिसका ठीक आज से सातवे दिन गर्भपात होगा ।और यहाँ रखी हुयी नीम की दातुन दो भागों में स्वतःही विभक्त हो जाएँगी । तब मेरा विधिवत देवरा धोरे के ऊपर बना कर मेरी मान्यता स्वीकार करना।
बताते है उनके सती होने के बाद सातवें दिन केड ठाकुर की घोड़ी का गर्भपात हुआ ।व् इधर सती वाले स्थान पर रखे हुए दातुन दो फाड़ो में विभक्त हो गए थे ।पीहर पक्ष की आंचलिक भाषा के अनुसार इन्होने अपने देवरे के उपलक्ष में कहा "म्हारो मंदिर धोरा माथे बणावज्यो "।मारवाड़ -बागड़ प्रदेश की तरफ "धोरा" टीले को बोला जाता है जब की शेखावाटी क्षेत्र में कुवे के पानी को क्यारियों में छोड़ने के लिए मिटटी की मेड से बनी हुई छोटी नहर को "धोरा "कहते है ।और उसी समझ के अनुसार पानी के धोरे पर बनवा दिया गया था।जो की बाजी की इच्छा के अनुसार नहीं था ।जिसके फलस्वरूप कुछ समय में ही मंदिर में दरारें आ गयी व् पुराना प्रतीत होने लग गया था । मंदिर का द्वार उत्तरमुखी है व् सामने विशाल सघन वटवृक्ष है ।वही सामने ही जानकी दादी के द्वारा बनवाया हुआ विश्राम गृह है । बाजी के मंदिर के आस पास रियासतकाल में ओरण(भूमि) छोड़ा गया था । मंदिर के आस पास का भूभाग सती वाली ढाणी के नाम से जाना जाता रहा है । सती वाली ढाणी में सैनी परिवार निवास करते है । 
सती -बाजी की मान्यता व् महिमा को शब्दों में पिरोना संभव नहीं है । राजपूत समाज के अलावा अन्य समाजों में भी इनकी मान्यता है । सच्चे मन से स्मरण करने से मनोवांछित कार्य पूर्ण होते है। मंदिर में बाजी की नयनाभिराम मूरत को देखते ही एक अलोकिक दिव्य शक्ति का आभास होता है ।राजपूत परिवारों में किसी भी मंगल कार्य के प्रारंभ से पहले सती जी की महिमा में मधुर गीत महिलाएं कुछ इस प्रकार से गाती है
या माता ककराणा की सकड़ साँची है
या माता बिदावत जी सकड़ साँची है ।।
वही सती जी के श्रृंगार की महिमा में कुछ इस प्रकार से अर्चन करती है
"माता जी न चुडलो सोहे ,जगदम्बा न चुडलो सोहे
चुडल री शोभा न्यारी सा ,थान सींवरा राज भवानी"
सती- बाजी ने सती होने से पूर्व राजपूत समाज में कुछ आण दी थी।उनकी इन वर्जनाओं का आज भी सिद्दत से पालन किया जाता है ।
१.आपके व् वंशजों के द्वारा कभी भी घर -परिवार में "छींके"का प्रयोग नहीं किया जावे ,(पहले लोग अपने कच्चे घरों में खाने-पिने की वस्तुओं को मिटटी के बर्तनों में डालकर खींप के छींके में लटकाकर रखते थे ।)
२.राजपूत महिलाएं बैठने में पीढ़े का इस्तमाल कभी भी नहीं करें ।जैसा की आज भी महिलाये भूमि पर दरी -जाजम बिछाकर कर बैठती है ।
३.महिलाये कभी भी काले पल्लू की ओढ़नी नहीं ओढ़े ।

पुराने समय में सती बाजी के प्रसाद के रूप में मीठा "दलिया" का भोग लगाया जाता था ।प्रतेक शुक्ल पक्ष की द्वादशी (बारस) को राजपूत परिवारों के बड़े-बच्चे धोक के लिए जाते थे।विगत लम्बे समय से जिर्नोदार नहीं होने से मंदिर काफी जीर्ण अवस्था में हो गया था ।अभी 2008 में मंदिर का जीर्णोद्वार श्री महावीर सिंह शेखावत ने करवाया है ।ढाणी में रहने वाले सैनी परिवार सती- बाजी की सुबह शाम मंगल पूजा व् दीपदान मनोयोग से करते है ।राजपूत समाज में विवाहोपरांत नवविवाहित जोड़ों की धोक लगाने सतीजी के अनिवार्य रूप से आते है ।प्रतेक माह की शुक्ल पक्ष की द्वादशी (बारस) को सती -बाजी की ज्योत जलाई जाती है व् प्रसाद चढ़ाया जाता है। दीपावली के पावन त्योंहार पर भी घरों में दीप प्रज्वलन से पूर्व सती -बाजी के दीपक व् ज्योत सामूहिक रूप से जलाई जाती है ।
चरण कमल में बंदना,माथे राखज्यो हाथ ।
शरण पड्या ने अपनायज्यो ,करज्यो माँ कर्तार्थ।।



Category-लोक देवता  

ककराना के भामाशाह




ककराना गाँव में विभिन्न जन सेवार्थ निर्माण कार्य करवाने वाले लोग भी हुए हैं ।जिन्होंने अपने कमाए हुए शुभ धन में से समाज के लिए लगाने का पुनीत कार्य किया है ।कहते है धन की पिपासा कभी भी किसी व्यक्ति की नहीं बुझी है ।अपितु जैसे जैसे बढा है उतनी ही और बलवती हुई है है ।ऐसे में कुछ विरले पुरुष ही होते हैं जो उस धन का मोह त्याग कर समाज हित में सहर्ष दान कर देते हैं ।सुरवीर पुरुष व् दानवीर पुरुषों के समबन्ध में किसी कवि ने ठीक ही कहा है -

पूत जण तो दोय जण, के दाता के शुर ।
नहीं तो रहीजे बाँझड़ी, मति गमाजे नूर ।।

ऐसे भामाशाह पुरुषों का जिक्र जब करते है तो सबसे प्रथम नाम सेठ पन्ना लाल अग्रवाल का आता है ।सेठ पन्ना लाल जी के मन में गाँव के प्रति कितना अपार प्रेम था बताने की आवश्यकता नहीं है ,उनके द्वारा करवाए गए निर्माण कार्य खुद ब खुद बयां करतें है ।उन्होंने एक के बाद एक शिव मंदिर ,बालिका विद्यालय व् गोपाल जी का मंदिर बनवाकर मात्रभूमि के प्रति अपने कर्तव्य का बखूबी निर्वहन किया ।

१. शिव मंदिर--
सेठ जी सर्वप्रथम गाँव में पशुपति नाथ बाबा का सुंदर मंदिर १९२७ में अपने पिता श्री की यादगार में बनवाया ।यह गाँव का पहला मंदिर था जिसमे संगमरमरी चिप्स पत्थर का प्रयोग हुआ था व् सुंदर फर्श व् स्तंभों से बना है।यह मंदिर गाँव के सबसे पुराने बरगद के पेड़ के निचे बना है ।बताते है इस मंदिर के स्थान पर पहले कुआ था ।इस मंदिर की खासियत यह रही है की यह गाँव के लोगों का पसंदीदा स्थान रहा है ।ग्रीष्म काळ की तपती दोपहरियों में इस के आश्रय में शीतलता का आभास होता है ।जिस के परिणाम स्वरुप यह गाँव का शिमला (cool palace) कहलाता है ।क्या बच्चे ,बड़े ,बुजुर्ग सभी यंहा पनाह लेते है ।ग्रीष्म में विभिन्न ग्रामीण खेल खेलने वालों का यहाँ आन्नद दायक कलरव गूंजता रहता है ।

२.उच्च प्राथमिक बालिका विद्यालय -
सेठ पन्ना लाल जी ने गाँव में बालिकाओं के लिए प्रथक विद्यालय नहीं होने की कमी को महसूस किया ।उन्होंने बालिका शिक्षा को बढ़ावा देनेके लिए बालिका स्कूल खोला ।गाँव के उच्च माध्यमिक विद्यालय के सामने सुंदर व् पर्याप्त भवन निर्माण करवा कर अपनी माता श्री नाम से स्कूल गाँव को सौंपा ।उनके द्वारा प्रदत भवन में सरकर ने सरकारी बालिका विद्यालय की मान्यता प्रदान की और उन्हें भामाशाह नागरिक सम्मान से समान्नित किया गया ।

३.गोपाल जी का मंदिर -
गाँव का गोपाल जी का मंदिर जर्जर अवस्था में हो गया था । पन्ना लाल जी ने मंदिर का पुन्रुदार करवाने की मनसा प्रकट की ।और उन्होंने बहुत सुंदर मंदिर को मूर्त रूप देना प्रारंभ कर दिया ।मंदिर के निर्माण में सुंदर संगमरमर पत्थर का प्रयोग किया गया है व् राधा-कृष्ण की आकर्षक मूर्तियाँ स्थापित की गयी है । उनके इस निर्माण में महादेव प्रसाद स्वामी ने भी उनका सहयोग किया था ।

२. ठा. भागीरथ सिंह जी ठुकरानी- इनको पो वाले बाज़ी के नाम से जाना जाता था ।उन्होंने भी अपने संचित धन से धर्मशाला का निर्माण करवाया ।

३.सेठ सुंडा राम -सेठ सुंडा राम ने धर्मार्थ के लिए धर्मशाला का निर्माण करवाया ।जो की गाँव के पुराने स्टैंड पर स्तिथ है ।वर्तमान में सभी धर्मशालाओं में यही सर्वाधिक प्रयोग में ली जाती है ।धर्मशाला में पानी -बिजली का समुचित प्रबंध है ।

४.सेठ गोकुल राम महाजन- सेठ गोकुल राम महाजन ने गाँव की पूर्वी दिशा में धर्मशाला का निर्माण करवाया था।यह धर्मशाला पहले गाँव में विभिन्न शादी समारोह में बारातों के रनिवास के लिए सर्वाधिक पर्योग होती थी ।इस धर्मशाला के सामने प्रयाप्त खुला स्थान है ।व् पहले इसमें जल श्रोत के रूप में एक कुई भी थी ।जिससे पानी की समुचित व्यवस्था रहती थी ।वर्तमान में इसमें एक निजी स्कूल संचालित हो रही है ।

Saturday, June 15, 2013

"बिलखती नार "

ज्ञान दर्पण .कॉम ब्लॉग पर प्रकशित की हुयी ,"बिलखती नार "राजस्थानी कविता दैनिक भास्कर भूमि अखबार के १ अगस्त के अंक में प्रकाशित |
"आपाणों राजस्थान" के वेब पोर्टल पर भी इस कविता को स्थान दिया गया है ।
लिंक निचे दिया जा रहा है 

Wednesday, May 29, 2013

पेड़ की शूल



गजेन्द्र सिंह शेखावत/27/05/2013/
 6:21PM 
 चित्र गूगल से साभार 



रामप्रसाद पिछले २ सालों से प्रदेश गए पुत्र की राह देख रहा था। क्या -क्या सपने सजोवे थे उसने ।गाँव के महाजन से विदेश भेजने के लिए उसने अपनी जमीं तक गिरवी रख दी थी ।ताकि उसके बच्चे को तंगहाली के दिन न देखने पड़े ।खुद रात दिन अपने खून को जलाकर महाजन के कर्ज का सूद हर महीने देता था ।
"लाला बस कुछ दिनों की ही बात है फिर मेरा लड़का तुम्हारी पाई -पाई चूका देगा, देखना ?"वह बड़े इत्मिनान से कहता ।
एक दिन घर के सामने नीम के पेड़ की छाँव में बैठा चिलम पी रहा था की दूर से डाकिया आता दिखाई दिया ।मन ही मन उत्सुकता जगी ।प्रदेश से बेटे का शायद मनिआर्डर आया होगा ।वह आशान्वित द्रस्ती को डाकिये पर गडाए हुए था ।डाकिये ने नजदीक आकर कहा भाई रामप्रसाद पत्र आया है ।
"भाई पढ़ कर सुना दो जरा" रामप्रसाद ने उत्सुकता वश डाकिये से कहा

बापू अम्मा को चरण स्पर्श,

में यहाँ कुशल -पूर्वक हूँ ,मेरी तरफ से आप किसी प्रकार की चिंता नहीं करे ।वो क्या है न बापू मुझे लिखने में संकोच हो रहा है मुझे यहाँ एक सस्ता घर मिल रहा था सो खरीद लिया ।इसलिए आप को पैसे नहीं भेज पाया । तुम्हारी बहु ने कहा की नया घर खरीद लेते है ।जिससे रोज -रोज का किराया का झन्झट भी नहीं रहेगा । उसके बाद बापू व् अम्मा को भी यहीं पर बुला लेंगे ।इसलिए आप ८-१० महीने पैसों का इंतजाम और कर लेना ।उसके बाद में महाजन के पैसे चूका कर आपको यहीं पर बुला लूँगा ।
आपका पुत्र
राजू

पत्र को सुनकर रामप्रसाद का शरीर शिथिल पड़ गया,वह शुन्य में टकटकी लगाये काफी देर तक देखता रहा ।जैसे जलती हुई आग में किसी ने पानी के मटके उड़ेल दिए हो ।डाकिये ने झकझोरा "अरे भाई कहाँ खो गए रामप्रसाद"
नहीं भाई कहीं नहीं बस यूँ ही बच्चे की जरा याद आ गयी ।डाकिया जा चूका था ।रामप्रसाद की पत्नी गले की असाध्य बीमारी से पीड़ित थी ।रामप्रसाद छपर में खाट को डालते हुए सोच रहा था की पत्नी से क्या कहू जिसकी दवा भी ख़त्म होने को है ।
"अजी सुनते हो क्या लिखा है लल्ला ने,पैसे भेज रहा है न" अन्दर से पत्नी की आवाज ने उसकी तन्द्रा को तोडा ।
रामप्रसाद गहरी साँस छोड़ते हुए खाट पर बैठ गया ।और सोचने लगा "क्या बेटे का मकान खरीदना अपनी अम्मा की बीमारी के इलाज से ज्यादा जरुरी था ।क्या गाँव के महाजन का कर्ज चुकाना व् घर -खर्च भेजना से ज्यादा जरुरी शहर का मकान खरीदना था ।
अब वह कल महाजन को क्या जवाब देगा ।कल पत्नी की दवा कहाँ से ल़ा पायेगा ।आज उसे अपनी परवरिश में स्वार्थ की बू आ रही थी ।अपने खून से सींच -सींचकर बड़े किये हुई पोधे की शूल उसके ह्रदय में रह रह करचुभ रही थी ।
उसने सामने से जा रहे स्कूल के मास्टर जी को आवाज लगाई ,और पत्र लिखने को कहा ।
" हम यंहा पर मजे में हैं बेटा,महाजन का कर्ज भी चूका दिया है ।तुम आराम से रहना व् बहु का ख्याल रखना ।मकान लेकर तुमने अच्छा किया तुम्हारी अम्मा का इलाज तो ८-१० महिना बाद करवा लेंगेल्ताब्तक में कुछ व्यवस्था करता हूँ ।
मास्टर जी किक्रत्व्यविमूढ़ व् हेरत से उसे देख रहे थे । हाथ में लाठी लेकर वह महाजन को अपनी जमीं का सौदा करने चल पड़ा था।

ताकि कर्ज के साथ -साथ बचे हुए पैसे से अपनी औरत का इलाज करवा सके ।     

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 categoery:-कहानी 

Thursday, May 2, 2013

ककराना का प्राचीन -लक्ष्मन जी का मंदिर


गजेन्द्र सिंह शेखावत

ककराना गाँव के मंदिरों में सबसे प्राचीन लक्ष्मन जी का मंदिर बताते है ।इस मंदिर की स्थापना का कहीं उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ है ।शायद शेखावतों का उदयपुरवाटी से निकलने के बाद ही निर्माण हुआ होगा । झुंझार सिंह गुढा के पुत्र गुमान सिंह जी को ककराना ,नेवरी ,किशोरपुरा गाँव जागीर के रूप में मिला था ।शायद उसी दौरान या उसके बाद उनके वंशजों ने इस मंदिर का निर्माण करवाया होगा । 
मंदिर को बनाने में बढ़िया किस्म का चुना पत्थर का प्रयोग किया गया था ।इस मंदिर की ऊंचाई भी इतनी अधिक की गयी की तत्कालीन समय में निचे बसे हुए गाँव में आसानी से इसके स्वरुप के दर्शन हो जाते थे ।मंदिर ककराना के ह्रदय स्थल मुख्य बाजार में स्थापित है ।मजबूत बड़े व् विस्तृत आसार,बड़ा मंडप ,मंदिर में गर्भ गृह के पास भवन, तिबारे ,निचे बड़े तहखाने बने हुए है ।"लक्ष्मण धणी" के गर्भ गृह के सामने ही हनुमान जी का मंदिर है ।मंदिर के गर्भ गृह के चहुँ और परिकर्मा बनी हुई है । मंदिर की बनावट को देखकर उन्मुखत भाव से मद खर्च का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है ।

भगवन राम ,राधा -कृष्ण ,शिव ,हनुमान आदि देवोँ के मंदिर तो प्रायः हर जगह द्रस्तिगोचर होजाते है ।परन्तु लक्ष्मण जी जिनके बिना भगवान राम की कल्पना भी नहीं की सकती ।जो कदम -कदम पर श्री राम प्रभु की परछाई बने रहे ऐसे त्यागी महापुरुष के मंदिर बहुत कम देखने को मिलेंगे । लक्ष्मण जी अपने दाम्पत्य सुख की बलि देकर भ्रातृसेवा का त्यागदीप्त जीवनमार्ग अपनाते है ।
प्रभु श्रीरामजी को ज्ञान और लक्ष्मणजी को वैराग्य का प्रतिक कहा गया है ।बगैर लक्ष्मण के राम का चरित्र कहीं उभरता ही नहीं।तुलसीदास ने राम की कीर्तिध्वजा का डंडा लक्ष्मण को माना है।
इस ऐतिहासिक मंदिर का उल्लेख उदयपुरवाटी के प्रमुख मंदिरो की श्रेणी में आता है ।तत्कालीन समय में किसी कवि ने इसका बखान अपने दोहे में कुछ इस प्रकार से किया है -
गोपीनाथ गुढा को ठाकर(भगवान) ,चुतुर्भुज चिराना को ।
मालखेत सबको ठाकर ,लक्ष्मन जी ककराना को ।।

जागीरी के समय मंदिर के भोग व् दीपदान के लिए राजपूत जागीरदारों के द्वारा लगभग ३०० बीघा उपजाऊ भूखंड प्रदान किया गया था ।जैसा की रियासत काल के समय में मंदिरों के निर्माण के साथ ही मंदिर की पूजा व् देखरेख के लिए मंदिर के नाम भूमि दान की जाती थी ।इसका हेतु यह था की मंदिर की पूजा अर्चना व् देखभाल उस भूमि से उपार्जित आय से भविष्य में होती रहे ।
मंदिर की पूजा शुरू से ही स्वामी परिवारों के अधीन रही है ।
।स्वामी परिवार ही इस भूमि को कास्त करते थे व् मंदिर की पूजा बारी बारी से सँभालते रहे है ।
काफी समय से रखरखाव पर खर्च नहीं करने से मंदिर धीरे धीरे जर्जर होता जा रहा है ।निचे से दीवारें कमजोर पड़ने लग गयी है ।जगह जगह से पलस्तर उखड़ने लग गया है ।
इतना समर्ध मंदिर होते हुए भी उपेक्षा का शिकार हो रहा है । वर्तमान में किसी एक ग्रामीण व्यक्ति की सामर्थ्य नहीं है की इस विशाल मंदिर की मरम्मत करवा सके ।इसलिए सर्वसमाज को आगे आकर व् प्रवाशी बंधुओं के सहयोग से पुन्रउद्दार के बारे में सोचने की नितांत आवशयकता है ।


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categoery-विरासत

प्याऊ -कभी पुण्य का होता था काम आज है व्यवसाय


गजेन्द्र सिंह शेखावत 

जी हाँ में बात कर रहा हूँ हमारी संस्कृति में पानी पिलाने की प्याऊ संस्कृति का ।जिसमे किसी समय में प्यासे व्यक्तोयों को जगह -जगह ठन्डे पानी की मनुहार करके दोड़-दोड़ कर पानी पिलाया जाता था ।गाँवों के बस स्टैंड ,चोराहे ,शीतल छाँव के विशाल पेड़ों के निचे टाटीयों के निचे जब दूर से चलकर तपती दोपहरियों में कोई राहगीर आता था तो शीतल जल को पाकर व् छाँव में कुछ देर सुस्ता कर पुण्यात्मा को मन ही मन धन्यवाद देता था ।कहा गया है प्यासे को जल और भूखे को भोजन करने की सेवा सबसे बड़ी सेवा है ।परन्तु पिछले वर्षों में यह सेवा भावना अब व्यापार भावना बन गयी है ।आज जब भी हम कहीं सफ़र में जाते है तो १५-से २० रुपये खर्च करके पानी पिया जाता है ।यह जल भी प्लास्टिक के पाउचों में बंद मशीनों से ठंडा किया होता है जिसमे प्याऊ के मटके की शीतलता व् स्वाद कहाँ । पानी के इस व्यवसाय से पुन्य की भावना को लोप कर दिया है ।बाजारवाद ने पुन्य के अर्थ को ही बदल कर रख दिया है ।
पुराने समय में पुण्यात्मा लोग ,सेठ साहूकार ,राजा -महाराजा गाँवों व् कस्बों में कुवे ,बावड़ीयां बनवाते थे । जिससे कोई भी राहगीर उनके राज्य गाँव ,क़स्बे से प्यासा नहीं जाये ।

Monday, April 29, 2013

शख्सियत परिचय - उदयपुरवाटी के पूर्व विधायक स्व. इंद्र सिंह पोंख



गजेन्द्र सिंह शेखावत 

उदय पुर वाटी विधान सभा क्षेत्र के समाज के अंतिम व्यक्ति से जुड़े पूर्व विधायक श्री इन्दर सिंह पोंख के नाम को कौन नहीं जानता ?क्षेत्र की सियासत में इनका भी अपना अलग ही स्थान था ।
इन्दर सिंह पोंख स्पस्त्वादी,व् मिटटी से जुड़े हुए नेता थे ।इनकी लोकप्रियता का आलम यह था की ये पोख गाँव के ४५ साल तक सरपंच रहे । सन १९७७ में उदय पुर वाटी से जनता पार्टी से विधायक चुने गए।जीवन पर्यन्त संघर्षशील रहे इन्द्र सिंह ने 1962 व 1967 में स्वतंत्र पार्टी व 1990 में कांग्रेस टिकट पर विधायक का चुनाव लड़ा था मगर पराजित हो गये थे। उनके कोई संतान नहीं थी। उदयपुरवाटी से चाहे विधायक कोइ भी रहा हो ,परन्तु उनके समर्थक हमेशा उनके साथ रहे ।वह विभिन्न ग्रामीण लोगों के अभाव -अभियोग बिना किसी पद पर रहते हुए भी साथ जाकर सुलझाने में हमेशा प्रयासरत रहे।
पोंख का राजमाता गायत्री देवी ,विख्यात उद्योगपति घनश्याम दास बिरला,पूर्व उपराष्ट्रपति स्व. भैरों सिंह शेखावत ,रावल मदन सिंह नवलगढ़ व् पूर्व केंद्रीय मंत्री शीश राम ओला से निकटम सम्बन्ध थे ।
ये हमेशा अपनी बेबाकी व् वाकपटुता के लिए प्रसिद्ध रहे ।प्रशाशनिक अधिकारिओं के द्वारा किसी भी प्रकार की कोताही को ये बिना किसी लाग् लपेट के सीधी भाषा में लताड़ने से नहीं चुकते थे । इनकी धर्मपत्नी श्रीमती जोर कँवर
 भी उदयपुर वाटी से प्रधान रह चुकी है

Saturday, April 27, 2013

सज -धज बैठी गोरड़ी -राजस्थानी कविता


4-12-2012 : भास्कर भूमि, छत्तीसगढ़ 
गलती से अख़बार ने कविता लेखक गजेन्द्र सिंह शेखावत की जगह राजेंद्र सिंह शेखावत लिख दिया जिसे कृपया गजेन्द्र सिंह शेखावत ही समझे |
रतन सिंह जी भगतपूरा के चर्चित ब्लॉग ज्ञान दर्पण.कॉम पर यह कविता निम्न पर पढ़ी जा सकती है 
http://www.gyandarpan.com/2012/12/blog-post.html

Friday, April 26, 2013

शेखावाटी की भागीरथी - काटली नदी



गजेन्द्र सिंह शेखावत

काटली नदी राजस्थान के सीकर ज़िले के खंडेला की पहाड़ियों से निकलती है। यह एक मौसमी नदी है और तोरावाटी उच्च भूमि पर प्रवाहित होती है। नदी उत्तर में सीकर व झुंझुनू में लगभग 100 किलोमीटर बहने के उपरांत चुरू ज़िले की सीमा के निकट अदृश्य हो जाती है।
विगत १७-१८ सालों में जिस प्रकार से बारिश का पैमाना साल दर साल कम होता गया है ।वर्षा से पूरित जल श्रोत धीरे - धीरे सूखने लग गए ।सन १९९३-९३ में अंतिम अच्छी बारिश हुई थी ।उस समय वर्षा की झड़ी लगा करती थी ।झड़ी के रूप में होने वाली वर्षा ही भूमि की प्यास को पूरी तरह से मिटा पाती थी ।सूर्य देव पूर्ण रूप से बादलों की ओट में छुप कर बैठ जाते थे।आरावली पर्वत से अपार जल के आने से बाढ़ की जमीं का बंधा उसी साल टुटा था ।गाँव का निचला हिसा पूरी तरह जलमग्न हो गया था ।छप्पर तो एक तरफ पक्के मकानों की छते भी टपकने लग गयी थी ।
उसके बाद लगातार ४-५दिनों तक बारिश की झड़ी कभी नहीं लगी ।हर साल बारिश तो होती है ,परन्तु कुछ समय में रुक जाती है ।जिससे धरती की गहराईयों में स्तिथ जल शिराओं तक जलराशी नहीं पहुँच पाती है|परिणाम स्वरुप भूमि के द्वारा उस जल का तुरंत अवशोषण कर लिया जाता है व् वाष्प बनकर उड़ जाता है ।

शेखावाटी क्षेत्र की परमुख बरसाती नदी काटली इस क्षेत्र की भागीरथी है ।अरावली पर्वत श्रंखलाओं की गोद से जन्म लेने के बाद विभीन गांवोंसे निकली नालियों ,छोटे छोटे नालों व् पठारों से निकली जल की कुपिकाओं को अपने आप में समाहित करती हुई आगे बढती है ।किसी समय में यह पुरे वेग के साथ उफनती हुई गुमावदार बलखाती हुई बहती थी ।लगभग आधा किलोमीटर का क्षेत्र इसके आगोश में होता था ।अपने चिरपरिचित मार्ग से यह जब निकलती थी तो तटवर्ती गांवों का आवागमन अवरुद्ध हो जाता था ।सीमावर्ती गाँवों का संपर्क टूट जाता था । कुछ सधे हुई तेराक नदी के तट पर सहायता के लिए उपलब्द रहते थे ।गांवों का जनसमूह तटों पर मानो इसके स्वागत के लिए जमा हो जाया करते था।उस दौरान इस क्षेत्र का मिठा पानी का स्तर स्वतः ही बढ़ जाया करता था । तेराकी के शोकिनो के लिए इसके बहाव के ख़त्म हो जाने के बाद बने छोटे -छोटे तालाब सिखने का जरिया होते थे ।जहाँ वो अपनी जिजीविषा को शांत करते थे ।

इस नदी के शबाब पर होने के दौरान आवागमन पूरी तरह से ठहर जाता था ।कई -कई बार तो २-३ दिन तक पानी का वेग नहीं रुकता था।ऐसे में कॉपर प्रोजेक्ट के द्वारा ३५ -४०
साल पहले दोनों मुहानों को जोड़ने के लिए रपटे(सीमेंट की रोड ) का निर्माण करवाया गया ।ये रपटा मजबूत ककरीट पत्थर लोहे व् सीमेंट के योग से बना है ।जिससे यह आज भी पत्थर की मानिंद वैसे ही डटा हुआ है ।
परन्तु अब न तो वह बारिश की झड़ी लगती है और न ही ये नदी मचलती हुई आती है ।इन १७-१८ सालों में जन्म लेने वालों के लिए तो यह मात्र काल्पनिक कहानी बनकर रह गयी है ।आज सुदूर तक इस नदी के पाट व् बीच के क्षेत्र में कुचे व् आक के पौधे खड़े हुए निरंतर इसके आगमन के लिए प्रतीक्षारत है ।वहीँ दूसरी और मनुष्यों ने नदी के बहाव क्षेत्र में आवासीय निर्माण कार्य कर के इसके भविष्य में नहीं आने के प्रति पूरी तरह से आस्वश्थता जता दी है ।कई जगह छोटे छोटे बांध भी बना दिए गए है ।काटली नदी के बहाव क्षेत्र में गुहाला के समीप चिनाई में प्रयुक्त होने वाली उत्तम किस्म की बजरी होती है ।जहाँ से सुदूर स्थानों पर परिवहन होता है ।
क्या फिर से काटली नदी कभी आ पायेगी ?इसका उत्तर प्रक्रति के स्वरुप में छिपा हुआ है । 

उसने छोड़ दिया आना -जाना 
मानो कह रही हो मानव से 
तूने अच्छा सिला दिया मेरे दुलार का 
तुमने हमेशा देखा अपना हित
और की मेरी अनदेखी
बस अब बहुत हो चूका 
अब और नहीं सह पाऊँगी 

पहले वह थमी
फिर कुम्हलाई एक बेल की तरह
फिर बन गई सूखती हुई लकीर
और आज रह गयी दूर- दूर तक सिर्फ रेत............>>

Thursday, April 18, 2013

म्हारे मरुधर देश रा प्यारा ढाणी-गाँव



गजेन्द्र सिंह शेखावत 


म्हारे मरुधर देश रा प्यारा ढाणी-गाँव ।
कोरा कोरा मटका रो सोंधो -सोंधो पाणी।
गर्मी रा मौसम को कलेवो, छाछ - राबड़ी और धाणी
पीपल अर खेजड़ा री, ठंडी शीतळ छांव
म्हारे मरुधर देश रा प्यारा ढाणी-गाँव ।।(1)
पावणा रो अठै होवै मोकलो सत्कार
टाबर ,जिव -जिनवारां न हेत रो पुचकार
सीधा सांचा लोग अठा रा, त्योंहारा रो चाव
म्हारे मरुधर देश रा प्यारा ढाणी-गाँव ।।(2)

केर कमटिया सांगरी का मेवा री सुवास
धर्म दान और वीरता रा मंड्या पड्या इतिहास
नर -नारयां रो अठे ,फुटरो बणाव्
म्हारे मरुधर देश रा प्यारा ढाणी-गाँव ।।(3)

प्याऊ ठंडा पानी का, हेला रो हेत अठै
मीठी बोली ऱी अपणायत आ सोना जेड़ी रेत् कठै
दुबड़ी ऱी जड़ की तरियां, आपस रो जुडाव
म्हारे मरुधर देश रा प्यारा ढाणी-गाँव ।।(4)


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Sunday, March 31, 2013

ककराना का महत्वपूर्ण त्योंहार -गणगौर

ककराना का महत्वपूर्ण त्योंहार -गणगौर 
ककराना गाँव का सबसे परमुख त्योंहार अगर गणगौर को कहें तो कोइ अतिशय उक्ति नहीं होगी 
।बताते है गणगौर के मेले का शुभारम्भ ४0 साल पहले लगभग किया गया था।उन सालों में कुस्ती का उन्माद चरम पर था ।सुरुवाती वर्षों में कुस्ती के दंगल व् गणगौर की सवारी निकाली गयी थी।धीरे -धीरे गाँव के तत्कालीन युवकों ने इसका विस्तार किया ।कुछ वर्षों बाद नवयुवक मंडल का गठन करके मेले की पूरी व्यवस्था उसके अधीन होने लगी ।फिर नवयुवक मंडल आदर्श स्पोर्ट्स कल्ब में तब्दील हो गया ।जिसमे खेल के साथ साथ मेले की सम्पूर्ण कार्यकारिणी गठन की गयी ।कलब में उस दौरान विभीन कार्यों के लिए साप्ताहिक मीटिंग होती थी । कलब के सदश्यों के द्वारा मेले में रात को एतिहासिक शिक्षाप्रद नाटक का अभिनय किया जाने लगा।कलब के सदस्य मेले के नाटकों की रिहर्सल करके अभिनय में जी - जान लगा देते थे । ।परन्तु १३-१४ साल के कार्यकाल के बाद कल्ब भी राजनेतिक महत्वकांक्षा की भेंट चढ़ गया।कुछ लोगों ने इस उत्कर्ष्ठ संस्था को राजनेतिक रंग देकर भंग कर दिया ।मौजूदा समय में कुछ समर्पित युवाओं के द्वारा मेले की व्यवस्था संभाली जाती है ।
गणगौर मेले में सांय कालीन सवारी के आगमन का द्रश्य सबसे ज्यादा मनोरम होता है ।शाही लिबास में सजे धजे ऊंट गाड़ी पे बिराजे इशर -गणगौर व् उनके पीछे पगड़ियों में पुरुष ,श्रंगारित महिलाए,,माथे पर मिटटी की मूर्तियों को उठाये हुए बालिकाओं का हुजूम ,आगे-आगे बेन्ड के वाद्यों से निकलती राजस्थानी स्वर लहरियां।जगह-जगह इशर गणगौर पर न्योछावरे, दोनों और संगीनों से सुसज्जित अंगरक्षक के रूप में शाही लिबास में युवक मेले की शोभायात्रा में चार चाँद लगा देते हैं । 

गणगौर मेले की विभीन गतिविधियों से गाँव में छिपी हुई प्रतिभाएं कलाकार के रूप में ,खिलाडी के रूप में व् कार्यकर्ता के रूप में निखर कर सामने आने लगी । वहीँ दूसरी और ऊंट दौड़ ,घुड दौड़ आदि प्रतियोगितायों से पशु पालकों को भी समान मिलने लगा ।मुकदर(५०किलो का गोल पत्थर) प्रतियोगिता से शारीरिक बल का प्रदर्शन होता था ।जिसको भुजबल से एक हाथ से उठाया जाता था ।वर्तमान समय में बालीबाल-क्रिकेट प्रतियोगिता का रोमांच चरम पर होता है ।विभिन्न गांवों से आमंत्रित टीमों के प्रदर्शन सांय कालीन तक चलते रहते है । विजेता -उपविजेताओ को आमंत्रित अतिथि इनाम वितरण कर मनोबल बढ़ाते है।
गणगौर का मेला सिर्फ एक मेला भर नहीं है ।ये साझा संस्कृति है पुरे गाँव को एकसूत्र में पिरोने की । ये त्योंहार है वैभव व् जीवन के मिठास की अभिवक्ति का,ये त्योंहार है स्त्रीत्व का पुरुष के प्रति समर्पण का ,ये त्योंहार है पुरे गाँव की खुशियाँ एक स्थान पर मनाने का ।
होली के दुसरे दिन से लेकर १८ दिनों तक कन्याये व् नवविवाहित स्त्रियाँ अलसुबह भोर से रात्रि तक कड़ी पूजा करती है ।इन अस्टदश दिनों में उनके द्वारा सुबह गणगौर को जगाना व्, दोपहर को पानी पिलाना, रात को विश्राम के अलग -अलग गीत गाए जाते है है । घर -घर में बन्दोरे दिए जाते है ।विवाहित स्त्रियाँ निर्जल रहकर माता का अजूणा ( उद्दीपन) करती है व् गणगौर माता को अखंड सुहाग व् सुयोग्य वर की मंगल कामनाओं के साथ पूजा जाता है । स्त्रियाँ के सोलह श्रृंगार से सज्जित रूप व् कर्ण प्रिय गीतों के मधुर स्वर से पूरा वातावरण उर्जान्वित हो जाता है ।सिर पर पानी भरा कलश और हाथों में हरी-हरी दूब तथा रंग-बिरंगे फूलों से सजी पूजा की थाली लेकर गीत गाती इन बालाओं के द्वारा गया जाने वाला एक खुबसूरत अमर गीत इस प्रकार से है -

खेलण दो गणगौर
भँवर म्हाने खेलण दो गणगौर
जो म्हारो सैयों जो है बाट
माथे न मैमद लाब
म्हारी रखड़ी रतनजड़ी
भँवर म्हाने खेलण दो गणगौर
....
वहीँ एक कवि के ह्रदय से कुछ इस प्रकार के उदगार फुट पड़ते है -

१.चेत सुमास बसंत रितु,
घर जंगल सम चाव |
गोरी पूजै गोरड़यां,
बाँवल फोग बणाव ||

बसंत ऋतु के चेत्र मास में घर और जंगल सब जगह प्रसन्नता की लहर है | स्त्रियाँ फोग (राजस्थान में होने वाला एक विशेष पौधा) का बाँवल बना कर गोरी की पूजा कर रही है |

२.जोड़ा मिल घूमर घलै,
घोड़ा घूमर दौर |
मोड़ा आया सायबा ,
खेलण नै गिणगोर ||

जोड़े आपस में मिलकर घूमर नाच नाचते है | घोड़े घूमर दौड़ते है | पत्नी कहती है , हे साहिबा ! आप गणगौर खेलने हेतु बहुत देर से आए है : 

एक विवाहिता परदेस में पति को कुछ इस प्रकार से गीत के माध्यम से आमंत्रण भेजती है -
गणगौरयां का मेला पर थे आया रहिज्यो जी ....

Saturday, March 16, 2013

शिक्षा का बेजोड़ केंद्र - माद्यमिक स्कूल ककराना (Unique center of education - Secondary School Kakarana)

गजेन्द्र सिंह शेखावत 


ककराना गाँव की शिक्षा के प्रति जागरूकता प्रारंभ से ही रही है ।हमारे अभिभावकों ने स्कूल के कार्यकलाप में शुरू से ही रूचि दिखाई ।जिसकी बदोलत यहाँ पर आने वाला स्टाफ भी गाँव की प्रशंशा करके गया है ।गाँव के लोगों ने रास्ट्रीय पर्वों के अवसर स्कूल के कार्यकर्मों में उत्साहित होकर भाग लिया है ।व् यहाँ की समस्याओं को दूर करने का यथायोग्य प्रयास भी किया है

आस -पास के गाँव दीपुरा , पदेवा,दलेलपुरा,माधोगढ,मैनपुरा, गढ़ला, आदि की पसंदीदा स्कूल हमेशा ककराना की रही है ।इन गाँव के अभिभावकों ने अपने बच्चों को इस शांति प्रिय व् अनुशाषित गाँव में प्राथमिकता से भेजा है ।

अब ५-६ सालों से शिक्षा का बाजारीकरण व् अंग्रेजी माद्यम के निजी स्कूल शहरों की तर्ज पर बनने से निजी स्चूलों में पढाना स्टेटस सिम्बल बनता जा रहा है ।
वही दूसरी और सरकारी अध्यापक भी अकर्मण्य बन गए है ।उनका भी स्कूल आना सिर्फ उपस्थिति दर्ज करवाना मकसद भर है ।नए -नए युवा आरक्षण की बैशाखी के सहारे इस पेशे में आ तो गए ।लेकिन शिक्षा के प्रति समर्पण भाव उनमे नहीं है ।फेसनेबल लिबास में आना व् जैसे -तैसे समय व्यतीत करके "फट-फटी" पर बैठकर निकल जाना ही बस उनका शिक्षक धर्म है ।उनके आचार -विचारों से शिक्षक की गरिमा कहीं भी द्रष्टिगोचर नहीं होती है ।

किसी समय में ककराना की माद्यमिक स्कूल में प्रवेस पाना प्राथमिकता होती थी । गाँव वालों के अथक प्रयास से सन १९९० में यहाँ पर सरकर ने मेट्रिक परीक्षा का बोर्ड सेंटर बनाया ।उससे पहले मेट्रिक की परीक्षा देने विभिन्न गाँवों में केन्द्रों पर जाकर देना होता था ।जिससे विद्यार्थियों को बहुत असुविधों का सामना करना पड़ता था ।
उस समय गाँव के बड़े -बुजुर्ग लोग स्कूल के आस -पास परीक्षा के दौरान बैठे रहते थे ।जिससे किसी प्रकार की अवांछित गतिविधि नहीं हो ।
अब चूँकि स्कूल उच्च माध्यमिक में कर्मोंनत हो चुकी है ।काफी नए भवनों का निर्माण भी हो चूका है ।
जहाँ तक मुझे जानकारी है कुछ शिक्षक जिन्हें आज भी याद किया जाता है -

१.मास्टर देवी सिंह - यह बहुत ही सख्त स्वाभाव के मास्टर थे ।इनका तत्कालीन बच्चों में बहुत खौफ था ।सबक याद नहीं करने की स्तथी में ये उल्टा तक लटका देते थे ,व् बेंत से सुताई भी बहुत जबरदस्त करते थे । सुद्रढ़ कद काठी के धनी मास्टर जी के समय में अनुशाशन सर्वोपरि था ।कहते है बिना भय के विद्या नहीं आती है ।उसके लिए विद्यार्थी में शिक्षक का भय होना जरुरी है ।
"छड़ी पड़े छन-छन ,विद्या आवे घन -घन "
इनके सानिध्य में पढ़े हुई लोग आज भी इनको श्रधा से याद करते है ।
इन्होने आजादी की लड़ाई में नेताजी के साथ " आजाद हिन्द फौज" में अवेतनिक देश के लिए अपनी सेवा दी । नेताजी के साथ रंगून में ४-५ सालों तक अद्रस्य रहे । इन्होने २५-३० वर्ष तक ककराना में समर्पित भाव से सेवा दी ।इन्होने अध्यापन के साथ -साथ गाँव का डाक विभाग का काम भी संभाला ।तत्कालीन समय के प्रेमभाव कारण हमारे यहाँ अक्षर मिलने आते रहते है ।

२. मास्टर नेकी राम जी- ये भी अच्छे अध्यापक रहे ।

३.मास्टर गणपत लाल वर्मा-यह प्रधाना अध्यापक थे । ये स्वभाव से सोम्य व् म्रदुभाशी थे ।इनका गाँव के प्रति बहुत लगाव था । पहला ऐसा अध्यापक देखा जो स्वयं के विदाई समारोह के भाव -विहल क्षणों में रो पड़ा था ।

4.मास्टर श्रधा राम यादव -यह सीधे - साधे व् सरल स्वभाव के अध्यापक थे ।परन्तु संस्कृत के परम ज्ञाता थे ।हमारे प्रति इनका भी विशेष अनुराग था ।

5.मास्टर रणजीत सिंह-ये एक व्यवस्थित व् अनुशाशन प्रिय प्रधाना अध्यापक थे । रात्रिकालीन डोर टू डोर विद्यार्थियों का निरिक्षण करना व् अभिभावकों से मिलना इनका हर ग्रामवासी को अच्छा लगा । इन्होने भी अपने छोटे से कार्यकाल में गाँव में अपनी अच्छी छवि बनायीं ।

6.मास्टर दिलबाग सिंह-मास्टर दिलबाग सिंह- एक सुलझा हुआ व्यक्तित्व , अंग्रेजी के अध्यापक व् स्कूल समय में अपने कर्तव्य के प्रति जवाबदार दबंग अध्यापक ।इनका भी बड़ा खौफ था ।
इन्होने गाँव की संस्कृति में अपने आप को पूर्णतया ढाल कर रखा ।एवं मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाये ।इनके प्रति भी हमारा विशेष अनुराग रहा ।विगत २-३ साल पहले इनका देहावसान हो गया था ।

7.मास्टर सत्यरूप सिंह- सामाजिक विज्ञानं के बहुत मंजे हुए अध्यापक ,विनोदप्रिय स्वभाव ।विषय को पॉइंट टू पॉइंट समझाने की अद्भुद कला 

8.मास्टर सुमेर सिंह- ये प्रधानाध्यापक थे ।इन्होने भी स्कूल के स्टाफ व् अनुसाशन को व्यवस्थित रखा ।
इनमे से देवी सिंह ,श्रधा राम जी ,दिलबाग सिंह आदि को हमने करीब से जाना है ।


9.मास्टर केदारमल स्वामी -यह अंग्रेजी के अध्यापक रहे ।इनकी पढ़ाने की शैली बहुत सुंदर थी ।ये विद्यार्थियों के साथ हमेशा मित्रवत रहे ।अब सेवानिवर्ती के बाद गाँव के विभिन्न सामाजिक मुद्दों को सुलह करवाने के सामाजिक दायित्व को निभाते है व् विकास परक मुद्दों पर विचार रखते है ।

10.मास्टर रामकुमार मीणा - गाँव की स्कूल में काफी समय तक अध्यापक रहे । मुख्य रूप से सांस्क्रतिक प्रभारी रहे ।स्पीच के मामले में इनका कोई सानी नहीं रहा ।माइक पर एक अपनी विशिस्ट शैली से ये गाँव की आवाज बन गए ।समय समय पर इन्होने गाँव के विकास के मुद्दे उठाये ।विगत कुछ सालों से अंग -प्रत्यंग के काम नहीं करने के बावजूद भी आत्मविश्वास अभी भी गजब का है ।

Saturday, March 2, 2013


रुपगो होली को डाँडो 


पूर्णिमा के अवसर पर सोमवार २५ फ़रवरी को होली का डंडा रोपा गया। इसके साथ ही मांगलिक कार्यों पर भी विराम लग गया। मंगलवार से फागुन माह की शुरुआत हो गयी है ।पौराणिक मान्यता के अनुसार माघ पूर्णिमा से फाल्गुन पूर्णिमा तक सभी मांगलिक कार्य वर्जित हैं। बदले सामाजिक स्वरूप में होली से आठ दिन पहले 19 मार्च से 26 मार्च तक होलाष्टक के दौरान मांगलिक कार्य बाधित रहेंगे। होलिका दहन 26 मार्च को होगा, वहीं 27 मार्च को धुलंडी का त्योहार मनाया जाएगा।

बदलते दौर में फाल्गुनी महक कम हो गयी है ।पहले डंडा रोपण के साथ ही होली की शुरुवात हो जाती थी ।हंसी -ठिठोली व् मजाकिया गालीबाजी के दौर चलते थे। कुम्हार समाज के लोग अपनी नृत्य स्टाइल ,व्से स्वांग बाजी से लोगों का मनोरंजन करते थे । देर रात्रि तक सुहानी रातों में गाँव व् आस -पास की ढाणियों में चंग -धमाल की स्वर लहरिया मन को आकृष्ठ करती थी |हमारी कृषि आधारित व्यवस्था से त्यौहार भी पूरी तरह से जुड़े हुए है ।रवि की फसल के पकने पर उल्लास व् मस्ती का मन किसान का हो जाता था ।
किन्तु अब सब बदल गया है! अब तो गांवों में भी होलियां अलग-अलग जलने लगी हैं। लोकगीतों और लोकनृत्यों की जगह अश्लील कानफोडू गाने व भद्दे नृत्य होली की पहचान बनते जा रहे हैं।

अब नवयुवकों को लगता है, लोकगीतों और लोकनृत्यों से जुड़े रहना पिछड़ापन है। अत: शहरी बनने की होड़ में वे एक अपसंस्कृति को पोषित कर रहे हैं।
राजपूत छात्रावास झुंझुनू में स्तिथ स्टेचू 

वीरवर शार्दुल सिंह शेखावत (झुंझुनू) 

गजेन्द्र सिंह शेखावत

महाराव शार्दुल सिंह शेखावत का जन्म सन 1738 में हुआ था ।उन्होंने मुग़ल नवाब रोहिल्ला खान को परास्त कर वर्षों से स्थापित उनके झुंझुनू अधिपत्य को ख़त्म किया ।वह वीर ,पराक्रमी व् सूक्ष्म राजनीतिज्ञ शासक थे ।उनके झुंझुनू विजय पर किसी कवि ने ये दोहा कहा -सत्र सौ सतासिये ,अगहन मास उदार ।"सादो" लिनी झुंझुनू ,सूद आठ शनिवार ।।
उन्होंने झुंझुनू पर बारह साल से अधिक समय तक शासन किया ।उनकी मृत्यु के बाद संपत्ति पांच बेटों के बीच समान रूप से विभाजित किया गया था ।जो की पांच पाना के नाम से जाना जाता हैशार्दुल सिंह जी के बहुत बहादुर और सक्षम और कुशल शासक थे. उन्होंने कई नए गांवों, शहरों, किलों और महलों को उठाया, इनके तीन रानियाँ थी । झुंझुनू  में बादलगढ़ दुर्ग, महल व् बनवाया ।  उन्होंने जल सयोंजन के लिए  विशाल बावड़ी का निर्माण अपनी प्रिये रानी 'मेडतनी जी" के नाम से  करवाया । उन्होंने व्यापार के लिए सेठो (व्यापारियों) को प्रोत्साहित किया.।
झुंझुनू व् पिलानी में उनकी याद को चिर स्मर्निये बनाने के लिए उनके वंशजों ने उनके नाम पर शार्दूल छात्रावास का निर्माण करवाया ।जहा पर उनकी स्टेचू का आनावरण पूर्व केंद्रीय मंत्री व् राजपूत नेता  स्व. कल्याण सिंह जी कालवी ने किया ।हमने भी अपनी शिक्षा यहीं छात्रावास में रहकर पूरी की है ।

Thursday, February 28, 2013

पहाड़ी पर अनचाहे उगे कीकर के पेड़
गाँव के झाड़ीनुमा पेड़ 

कैर या करीर या केरिया या कैरिया एक मध्यम या छोटे आकार का पेड़ है। यह पेड़ ५ मीटर से बड़ा प्राय: नहीं पाया जाता है। यह प्राय: सूखे क्षेत्रों में पाया जाता है। थार के मरुस्थल में मुख्य रूप से प्राकृतिक रूप में मिलता है। इसमें दो बार फ़ल लगते हैं: मई और अक्टूबर में। इसके हरे फ़लों का प्रयोग सब्जी और आचार बनाने में किया जाता है। इसके सब्जी और आचार अत्यन्त स्वादिष्ट होते हैं. पके लाल रंग के फ़ल खाने के काम आते हैं। हरे फ़ल को सुखाकर उनक उपयोग कढी बनाने में किया जता है।सूखे कैर फ़ल के चूर्ण को नमक के साथ लेने पर तत्काल पेट दर्द में आराम पहुंचाता है।


कैर की झाडिया मारवाड़,चुरू,फतेहपुर क्षेत्र में अधिकाश रूप में इनकी झाडिया पाई जाती है ।जो की दूर दूर तक जंगलों में पसरी हुई है । कैर के वृक्ष अपने क्षेत्र में बहुत कम मात्रा में है।थोड़े बहुत वृक्ष गाँव की पहाड़ी पर थे ।उनको भी लोगों ने कट- पिट कर बराबर कर दिया ।कुछ साल पहले तक पहाड़ी बिलकुल वृक्ष विहीन थी ।एक्का दूका जाल के पेड व् कैर के पेड थे ।


मीठे बेरों की झाड़ियाँ भी इस क्षेत्र में प्रयाप्त रूप से है ।जिनके लगने वाले बेर बड़े आकार के होते है ।गाँव की पहाड़ी की तलहटी के आस -पास ये झाडिया बहुत संख्या में थी ।जिनके बेर तत्कालीन समय में बच्चे छुटीयों में चाव से खाते थे ।
कुछ समय से बिलायती बबूल(कीकर) ने गाँव की पहाड़ी व् गाँव में पूरी तरह से कब्ज़ा कर लिया है ।शुरू में लोगों ने इनको सलीके व् हिफाजत से लगाना प्रारंभ किया। इनकी बटवार बनाकर पानी भी डालते थे ।और अब स्तथी ये है की ये लोगों के जीव का जंजाल बन गया है । इसके पेड़ को न तो आसानी से काटा जा सकता है और न ही ख़त्म किया जा सकता है ।यहाँ तक की घासलेट से जलाने के उपरांत भी अंकुरण फुट आता है

प्रजावत्सल महाराजा गंगा सिंह जी बीकानेर ने राजस्थान की वृक्ष विहीन धरती को देख कर यहाँ पर पेड़ लगाने के लिए विचार किया परन्तु यहाँ के जलवायु व् पानी की कमी के कारन किसी भी वनस्पति को लगाना संभव नहीं था ।तब महाराजा गंगा सिंह विलायत से इस वृक्ष को लेकर आये ।ताकि मरुभूमि में हरियाली पनप सके । इस वृक्ष की खासियत है की ये तमाम विषम व् प्रतिकूल परिस्तिथि में भी पनप सकता है ।

आज स्तिथि ये है के ये बबूल(कीकर) के पेड़ गाँव की पहाड़ी ,खाली पड़े भूखंड,सार्वजनिक स्थानों ,निर्जन घरों हर जगह फेल गए है ।और गाँव के स्वरुप को पूरी तरह से बबुलमय कर दिया है ।

Saturday, February 16, 2013

राजस्थान की कुछ सटीक व् मजेदार कहावतें -




1.अभागियो टाबर त्युंहार नै रूसै
अर्थ -भाग्यहीन बालक त्यौहार  के दिन रुष्ट होता है ।

2.अय्याँ ही रांडा रोळा करसी अर अय्याँ ही पावणा जिमबो करसी
अर्थ -जलने वाले ऐसे ही जलते रहेंगे ।

3.आसोजां का पड्या तावडा जोगी बणग्या जाट
अर्थ -असोज के महीने में अगर तेज धुप पड़ती है तो किसान की बर्बादी निश्चित है ।

4.तीजां पाछै तीजड़ी, होळी पाछै ढूंढ, फेरां पाछै चुनड़ी, मार खसम कै मूंड ।
अर्थ -समय निकलने के बाद उस वस्तु उपलब्द होना बेकार है ।

5.च्यार चोर चौरासी बाणिया, बाणिया बापड़ा के करँ ।
अर्थ -अनउपयुक्त  व्यक्ति की संख्या  चाहे कितने भी हो वो कुछ नहीं कर सकते ।

6.ठिकाणे सुं ही ठाकर बाजे ।
अर्थ -व्यक्ति का नहीं स्थान का महत्व होता है ।


categeory-कहावतें 

Wednesday, February 6, 2013

ककराना की मुकुट मणि-मोर पापड़ा और श्रधेय 1008 श्री हरीदासजी महाराज


गजेन्द्र सिंह शेखावत 

ककराना गाँव को दूर से देखते है तो ये तो ये मोर पापड़ा हमें अपने गाँव का सूचक चिन्ह के रूप में आभास करा देता है । गाँव की पहाड़ी के उप्पर सजी कुछ चटाने मुकुट के समान द्रष्टि गोचर  होती है  इन्ही चटानो के ऊपर एक आयताकार चटान्न है यही है "मोर पापड़ा"
मोर पापड़ा पुराने समय से ही काफी चर्चा में रहा है ।बताते है पहले सुबह -शाम के वक्त इस पर मोर आपने पंखों को फैलाकर नृत्य करते थे ।जिसका द्रश्य बड़ा ही सुंदर होता था । और उसीआधार पर इसका नाम मोर पापड़ा पड़ा ।
इसी चटान्न  से एक कथा और जुडी हुई है एक समय भयंकर आकाल पड़ा । बिना वर्षा के चारों तरफ त्राहि -त्राहि मच गयी ।ग्रामीण लोग रोज बादलों की और तकते और भगवन इन्द्र को रोज मनाते । उस समय हमारे गाँव के सिद्ध संत श्री हरी दास जी महाराज से  गाँव की दशा देखि नहीं गयी । कहते है संत  और शुरवीर  मानव मात्र की भलाई के लिए  ही जन्म लेते है । हरी दास जी महाराज का  संत ह्रदय पिंघल गया ।

उन्होंने कसम खायी की जब तक वर्षा नहीं होगी तब तक वह इस "मोर पापड़ा " से निचे नहीं उतरेंगे ।व् एक पैर पर खड़े होकर तपस्या करेंगे ।
इतना कहकर वो इशी मोर- पापड़ा पर खड़े हो गए ।कई सवेरे हुए व् वीरान रातें गुजरी ।परन्तु श्री हरी दास जी महाराज अपनी भीष्म -प्रतिज्ञा के साथ अटल खड़े रहे ।
आखिरकार एक एक सप्ताह की कड़ी साधना के बाद इन्दर देव प्रसन्न हुए ।रिमझिम बारिश की झड़ी लग गयी ।जो की अगले तीन से चार रोज  तक जारी रही ।गाँव में खुशियों की सोरभ  फ़ैल गयी । "हरी दास जी महाराज की जय " से गाँव गूंज उठा ।
गाँव वाले ख़ुशी से नाचते हुए "मोर पापड़ा "पर पहुँच गए व्  हरी दास जी महाराज को ससम्मान निचे उतार कर लाये ।
उलेखनिये है की हरी दास जी का सांसारिक नाम रिछपाल सिंह शेखावत था ।उन्होंने  ठाकुर अगर सिंह के घर ककराना में जन्म लिया ।बचपन में ही उनकी सांसारिक जीवन से विरक्ति हो गयी । उन्होंने भगवन कृष्ण की सगुण भक्ति की ।मकराना के पास देवली नमक गाँव में उन्होंने आश्रम बनाया व् अपनी नस्वर देह त्यागी ।प्रतिवर्ष देवली में उनके निर्वाण दिवस पर भंडारा लगता है व् हजारों की तादाद में श्रद्धालु धोक लगते है ।

                                                                                                                           


Categeory-धर्म -संत महात्मा