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Thursday, May 2, 2013

प्याऊ -कभी पुण्य का होता था काम आज है व्यवसाय


गजेन्द्र सिंह शेखावत 

जी हाँ में बात कर रहा हूँ हमारी संस्कृति में पानी पिलाने की प्याऊ संस्कृति का ।जिसमे किसी समय में प्यासे व्यक्तोयों को जगह -जगह ठन्डे पानी की मनुहार करके दोड़-दोड़ कर पानी पिलाया जाता था ।गाँवों के बस स्टैंड ,चोराहे ,शीतल छाँव के विशाल पेड़ों के निचे टाटीयों के निचे जब दूर से चलकर तपती दोपहरियों में कोई राहगीर आता था तो शीतल जल को पाकर व् छाँव में कुछ देर सुस्ता कर पुण्यात्मा को मन ही मन धन्यवाद देता था ।कहा गया है प्यासे को जल और भूखे को भोजन करने की सेवा सबसे बड़ी सेवा है ।परन्तु पिछले वर्षों में यह सेवा भावना अब व्यापार भावना बन गयी है ।आज जब भी हम कहीं सफ़र में जाते है तो १५-से २० रुपये खर्च करके पानी पिया जाता है ।यह जल भी प्लास्टिक के पाउचों में बंद मशीनों से ठंडा किया होता है जिसमे प्याऊ के मटके की शीतलता व् स्वाद कहाँ । पानी के इस व्यवसाय से पुन्य की भावना को लोप कर दिया है ।बाजारवाद ने पुन्य के अर्थ को ही बदल कर रख दिया है ।
पुराने समय में पुण्यात्मा लोग ,सेठ साहूकार ,राजा -महाराजा गाँवों व् कस्बों में कुवे ,बावड़ीयां बनवाते थे । जिससे कोई भी राहगीर उनके राज्य गाँव ,क़स्बे से प्यासा नहीं जाये ।

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