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Saturday, September 20, 2014

गांव के परम्परागत जल स्रोत >

गजेन्द्र सिंह शेखावत 
ककराना गांव के पुरातन समय से जल श्रोतों का आंकलन करें तो इस गांव की प्यास बुझाने के लिय कुछ ऐसे जल श्रोत थे जिनका दैनन्दिनी में महत्वपूर्ण स्थान था । वो रोजमर्रा के जीवन के हिस्सा थे । हमारे राजस्थान के उत्कृष्ट संगीत में भी पानी लाती पनिहारिन पर अनेक गीत व् पेंटिंग्स बनायीं गयी है व् जगह -जगह कथाओं में इनके रोचक प्रसंग है |  कुवे -बावडिया ,तालाब ,नदी  जल देवता के रूप में पूज्य थे । हमारे ग्रामीण जीवन में नवप्रसूताओं का कुआ पूजन का बहुत बड़ा विधान रहा है |वर्तमान में गिरते जल स्तर ने इन जल श्रोतों की प्रासंगिकता को  पूर्णरूप  से नकार दिया है ।

1. झरिया वाला कुआ - गांव के जल श्रोतो की महत्वपूर्णता के लिहाज से यह कुवा सर्वोच्च स्थान रखता था ।बताते  है पहाड़ी स्तिथ एक खदान का भूमिगत सम्पर्क इस कुवे से था ।कुवे की अंदरुनी सतह   से चारों तरफ पत्थरों की दरारों से झर-झर कर पानी का रिसाव  कुवे में होता था ,शायद इसलिय इस कुवे का नाम "झरिया वाला कुवा" पड़ा । इस कुवे का अपेक्षाकृत सबसे मीठा पानी था ।मारवाड़ व् वागड़ प्रदेश से आने वाले अतिथि इस पानी को पीकर मुरीद हो जाते थे| गांव के घर परिण्डो   के मटकों में झरिया कुवे का पानी मुख्य  स्थान रखता था ।  कुवे के अंतर्गत सिंचित भूमि (जाव) थी|  जिसे इस  कुवे से सिचाई की जाती थी ।   धीरे धीरे गांव के विस्तार के साथ साथ सिर्फ पिने के पानी के रूप में इसका उपयोग होने लगा ।
2. जोड़ा (जोहड़)- गांव के दक्षिण दिशा की दो पहाड़ियों का बरसाती पानी इसमें इकठ्ठा होता था । बरसाती दिनों में प्रयाप्त जल राशि  इसमें संचित हो जाती थी । जहा पर पशुओं के पिने व् नहाने  का पानी रहता था । जोहड़ के पानी के संग्रहण से आस पास के जलाशयों मे  पानी का स्तर बना रहता था । इस जोहड़ की आज भी प्रासंगिकता है परन्तु वर्त्तमान में आस पास के क्षेत्र में बने  अतिकर्मण ने इस और आने वाली पानी की धाराओं को अवरुद्ध कर दिया है ।
3. कुवाली का कुआ - यह कुआ भी सिंचाई के लिय प्रयुक्त होता था । वर्तमान स्कूलों का मैदान तब सिंचित भूमि होती  थी । लाव -चरस से बेलों की जोड़ी पानी को खींचती थी । एक  व्यक्ति कुवे के जगत पर खड़ा चड़स को पकड़ता तो दूसरा बेलो को हांकता था । चड़स पकड़ने वाला एक गीत के माध्यम से चड़स को ढाणे तक पहुचने का इशारा करता था ।   पानी से लबालब चड़स जब मुहाने तक आ जाती   जब  कुवे के मुहाने पर बने ढाणे में गिराया जाता था । बाद में जब ८४-८५ में जलदाय विभाग का टैंक बना तब इस कुवे को भी वाटर सप्लाई से जोड़ा गया ।
4. बाबाजी की कुई - यह कुई गोपालजी के मंदिर के पीछे की तरफ बनी हुयी थी| इसका प्रयोग  मंदिर के निचे छोड़ी गयी भूमि की सिंचाई के लिय  किया जाता था । हमेशा से ही मंदिर में महंत  के रहने से बाबाजी की कुई के नाम से पहचानी  जाती थी । इस कुई का जलस्तर कुई के मुहाने तक बना रहता था । ८० के दशक के  बाद तक इस कुई  में पानी का अच्छा आवागमन था ।
५ बजारवाला कुआ - यह कुआ वर्तमान शिवजी के मंदिर पास भग्नावस्था में मौजूद है । इस कुवे से भी गांव का एक हिस्सा पानी की आपूर्ति करता था |
6. कुम्हारों के चौक का कुआ - यह कुआ भी काफी प्राचीन है । निचे फैले गांव की मध्य पट्टी पानी का उपार्जन करती थी | तत्कालीन निचे आस पास की भूमि  की सिंचाई इस कुवे से भी होती थी ।
7. हरिजन मोहल्ला कुआ - यह कुआ भी काफी पुराना है । कुए के चारों और पक्का जगत व् भूण (गोल काठ का पहिया)  के चार स्तम्भ खड़े हुए है ।
 उपरोक्त सभी कुवे अपने आरम्भिक दिनों में सिचाई के लिय बनाये गए थे । उस समय गांव का मानचित्र कैसा होगा ? आज स्वचालित पंप का पानी नलो के  माध्यम से घर के पात्रो तक पहुंच गया है । परंपरागत जल श्रोत रिक्त हो चुके है ।जल श्रोतों से सम्बंधित कुछ शब्द व् वस्तुए तो जैसे बदलते समय के साथ विलुप्त सी हो गयी | पनिहारी के सिर पर शोभित होने वाला मुकुट ईंदानी अब बीते जमाने की बात बन कर रह गई है,दोगड़(दो घड़े सामानांतर रू प से ), बिलाई ( कुवे में गिरे पात्र को रस्सी के माधयम से बांधकर निकलने का औजार ),चड़स,बरी आदि ।  इनकी रिक्तत्ता ने पानी के साथ साथ  जल के रूप में  पूजी जाने वाली उन मान्यताओं व्  पणीहारिनो को महज कल्पित  चित्रों तक सिमित कर दिया है |  जिसे आज का तरुण केवल पेंटिंग्स देख कर निहार सकता है ।