todar mal

Wednesday, December 31, 2014

थर्टी फर्स्ट

गजेन्द्र सिंह शेखावत 

बड़ी होटलां में खाणा दाणा ,
गावै आळ बवाल |
थर्टी फर्स्ट को जश्न चालगो ,
ना च नो -नो ताल ||
चेत संवत्सर न भूल भायला,
अंग्रेजी साल मनाव |
देव देवता को छोड़ भोग,
शराब- कवाब गटकावे ||
अंग्रेज रांडका जाता -जाता,
करगा बंटा- ढार |
चंदण तिलक ने छोड़ भाई डा, ,
लिपटा वीं छी गार ||

Saturday, September 20, 2014

गांव के परम्परागत जल स्रोत >

गजेन्द्र सिंह शेखावत 
ककराना गांव के पुरातन समय से जल श्रोतों का आंकलन करें तो इस गांव की प्यास बुझाने के लिय कुछ ऐसे जल श्रोत थे जिनका दैनन्दिनी में महत्वपूर्ण स्थान था । वो रोजमर्रा के जीवन के हिस्सा थे । हमारे राजस्थान के उत्कृष्ट संगीत में भी पानी लाती पनिहारिन पर अनेक गीत व् पेंटिंग्स बनायीं गयी है व् जगह -जगह कथाओं में इनके रोचक प्रसंग है |  कुवे -बावडिया ,तालाब ,नदी  जल देवता के रूप में पूज्य थे । हमारे ग्रामीण जीवन में नवप्रसूताओं का कुआ पूजन का बहुत बड़ा विधान रहा है |वर्तमान में गिरते जल स्तर ने इन जल श्रोतों की प्रासंगिकता को  पूर्णरूप  से नकार दिया है ।

1. झरिया वाला कुआ - गांव के जल श्रोतो की महत्वपूर्णता के लिहाज से यह कुवा सर्वोच्च स्थान रखता था ।बताते  है पहाड़ी स्तिथ एक खदान का भूमिगत सम्पर्क इस कुवे से था ।कुवे की अंदरुनी सतह   से चारों तरफ पत्थरों की दरारों से झर-झर कर पानी का रिसाव  कुवे में होता था ,शायद इसलिय इस कुवे का नाम "झरिया वाला कुवा" पड़ा । इस कुवे का अपेक्षाकृत सबसे मीठा पानी था ।मारवाड़ व् वागड़ प्रदेश से आने वाले अतिथि इस पानी को पीकर मुरीद हो जाते थे| गांव के घर परिण्डो   के मटकों में झरिया कुवे का पानी मुख्य  स्थान रखता था ।  कुवे के अंतर्गत सिंचित भूमि (जाव) थी|  जिसे इस  कुवे से सिचाई की जाती थी ।   धीरे धीरे गांव के विस्तार के साथ साथ सिर्फ पिने के पानी के रूप में इसका उपयोग होने लगा ।
2. जोड़ा (जोहड़)- गांव के दक्षिण दिशा की दो पहाड़ियों का बरसाती पानी इसमें इकठ्ठा होता था । बरसाती दिनों में प्रयाप्त जल राशि  इसमें संचित हो जाती थी । जहा पर पशुओं के पिने व् नहाने  का पानी रहता था । जोहड़ के पानी के संग्रहण से आस पास के जलाशयों मे  पानी का स्तर बना रहता था । इस जोहड़ की आज भी प्रासंगिकता है परन्तु वर्त्तमान में आस पास के क्षेत्र में बने  अतिकर्मण ने इस और आने वाली पानी की धाराओं को अवरुद्ध कर दिया है ।
3. कुवाली का कुआ - यह कुआ भी सिंचाई के लिय प्रयुक्त होता था । वर्तमान स्कूलों का मैदान तब सिंचित भूमि होती  थी । लाव -चरस से बेलों की जोड़ी पानी को खींचती थी । एक  व्यक्ति कुवे के जगत पर खड़ा चड़स को पकड़ता तो दूसरा बेलो को हांकता था । चड़स पकड़ने वाला एक गीत के माध्यम से चड़स को ढाणे तक पहुचने का इशारा करता था ।   पानी से लबालब चड़स जब मुहाने तक आ जाती   जब  कुवे के मुहाने पर बने ढाणे में गिराया जाता था । बाद में जब ८४-८५ में जलदाय विभाग का टैंक बना तब इस कुवे को भी वाटर सप्लाई से जोड़ा गया ।
4. बाबाजी की कुई - यह कुई गोपालजी के मंदिर के पीछे की तरफ बनी हुयी थी| इसका प्रयोग  मंदिर के निचे छोड़ी गयी भूमि की सिंचाई के लिय  किया जाता था । हमेशा से ही मंदिर में महंत  के रहने से बाबाजी की कुई के नाम से पहचानी  जाती थी । इस कुई का जलस्तर कुई के मुहाने तक बना रहता था । ८० के दशक के  बाद तक इस कुई  में पानी का अच्छा आवागमन था ।
५ बजारवाला कुआ - यह कुआ वर्तमान शिवजी के मंदिर पास भग्नावस्था में मौजूद है । इस कुवे से भी गांव का एक हिस्सा पानी की आपूर्ति करता था |
6. कुम्हारों के चौक का कुआ - यह कुआ भी काफी प्राचीन है । निचे फैले गांव की मध्य पट्टी पानी का उपार्जन करती थी | तत्कालीन निचे आस पास की भूमि  की सिंचाई इस कुवे से भी होती थी ।
7. हरिजन मोहल्ला कुआ - यह कुआ भी काफी पुराना है । कुए के चारों और पक्का जगत व् भूण (गोल काठ का पहिया)  के चार स्तम्भ खड़े हुए है ।
 उपरोक्त सभी कुवे अपने आरम्भिक दिनों में सिचाई के लिय बनाये गए थे । उस समय गांव का मानचित्र कैसा होगा ? आज स्वचालित पंप का पानी नलो के  माध्यम से घर के पात्रो तक पहुंच गया है । परंपरागत जल श्रोत रिक्त हो चुके है ।जल श्रोतों से सम्बंधित कुछ शब्द व् वस्तुए तो जैसे बदलते समय के साथ विलुप्त सी हो गयी | पनिहारी के सिर पर शोभित होने वाला मुकुट ईंदानी अब बीते जमाने की बात बन कर रह गई है,दोगड़(दो घड़े सामानांतर रू प से ), बिलाई ( कुवे में गिरे पात्र को रस्सी के माधयम से बांधकर निकलने का औजार ),चड़स,बरी आदि ।  इनकी रिक्तत्ता ने पानी के साथ साथ  जल के रूप में  पूजी जाने वाली उन मान्यताओं व्  पणीहारिनो को महज कल्पित  चित्रों तक सिमित कर दिया है |  जिसे आज का तरुण केवल पेंटिंग्स देख कर निहार सकता है ।

Friday, August 8, 2014

श्री १००८ बाबा सुन्दरदास जी महाराज का मेला

गजेन्द्र सिंह शेखावत 
शेखावाटी के विस्तृत भूभाग पर अनेक महापुरुषों ,लोकदेवताओं ,शहीदों के मेले लगते रहे है । इन मेलों में ग्राम्य जीवन की मिठास छिपी होती थी। श्रद्धा के सैलाब में मेल जोल व् दैनिक जीवन की वस्तुओं की खरीद तो होती ही थी । इसके अलावा लोकानुरंजन के भी यही माध्यम होते थे
बबाई खेतड़ी मार्ग पर पर्वत की सुरम्य उप्यातिकाओं की तलहटी में बसा एक छोटा सा गांव है "गाडराटा" | इस गांव की मुख्य पहचान अंचल के सिद्ध बाबा श्री सुंदरा दास जी महाराज के तपोभूमि बनाये जाने से है । सुन्दर दास की खेतड़ी ,उदयपुरवाटी ,नारनौल ,नीमका थाना के सुदूर गांवों में गहरी श्रद्धा व् मान्यता है । बाबा सर्पदंश निवारक देव के रूप में जनमानस में पूज्य है । शेखावाटी के प्रमुख मेलों में से एक भादवा सुदी तेरस को बाबा सुन्दरदास का लख्खी मेला लगता है ।

मेले के दौरान इस अंचल के सभी मार्ग बाबा सुन्दरदास महाराज की जय से गुंजयमान रहते है । बाबा के भोग की मीठी कढ़ाई गठरी में दबाये नर नारी, बच्चे मेले की उत्सुकता में प्रायकर हर उस और जाने वाले मार्ग पर द्रस्टिगोचर हो जायेंगे ।पुराने समय में तो गाँवो के झुण्ड के झुण्ड पद यात्री मेले के प्रस्थान के लिय भोर में ही शॉर्टकट नाका डूंगर के मार्ग से निकलते थे ।

वर्तमान परिद्रस्य की अपेक्षा उस समय मेले ,त्योंहारों का ग्रामीण जन जीवन में उत्साह भागीदारी व् मेलमिलाप व्यापक था ।मुख्यरूप से बड़े झूलों,मौत का कुवा व् जादूगरी करतब आदि का आनंद इसी मेले में आता था ।
मेले में हर गांव का एक नियत स्थान होता जहा इधर -उधर होने व् साथ छूट जाने पर पर इन्तजार किया जाता था । खेतड़ी ,नीमकाथाना की तरफ के महिलामंडल का अपने पीहर पक्ष के लोगों से मेलजोल इसी मेले में होता था । नयी रिश्तेदारियां बनायीं जाती । शादी योग्य युवक युवतियों के संबंो के बारे में चर्चाये होती व् एक दूसरे को देखे -दिखाए दिखाए जाते थे । महिलाये बेटी सगीयों को "मिळणे" देती थी । व्"सीठने व् गालें" गायी जाती थी | नव कप्पलस मेले में साज सिंगार की वस्तुए खरीदकर देते । मेले में खरीददारी करने के उपरांत सिनेमा प्रेमी युवक खेतड़ी -कॉपर के सिनेमा हाल की तरफ रुख कर लेते थे ।
बाबा सुन्दरदास जी के मंडप तक पहुचना व् दर्शन करना अत्यंत दुर्लभ कार्य था । जात्रियों की लम्बी कतारें धकमपेल को देखकर देर से पहुंचे जातरी दूर से ही भोग कढ़ाई अर्पित कर देते थे ।मध्यरात्रि के बाद तक खचाखच भरी बसों में लोगों का घरों की और पलायन जारी रहता था । समय के साथ साथ मेले की रंगत फीकी जरूर हुयी है लेकिन बाबा के भोग सामग्री -प्रसाद आदि लोग अब भी पहुचाते है ।
बचपन के सुखद संस्मरण में बाबा सुन्दरदास भी हमेशा सुखद स्मृति के रूप में अमिट रहेंगे

Saturday, July 5, 2014

जलमभोम (जन्मभूमि)

गजेन्द्र सिंह शेखावत 

डूंगर का आडा में ,उतरादो देव धनि है ठाडो|
गाय -धर्म को रक्षक , माता सेढू को यो लाडो 
चावलां को प्रसाद चढ़े,और ऊपर शकर को दाणों| 
धन - धन है या जलमभोम ,नाम है ककराणों ॥

गाँव सामो उंचवे लिछमन धनि बिराजे 
उदेपरवाटी  म एकला, ठाकर को डंको बाजे 
हाथ गदा हड्मान,और लिछमन के शाही बाणों
धन - धन है या जलमभोम ,नाम है ककराणों॥

नाला में गोपालजी गऊआ ने चरावे 
सुंदर मंदर बन्यो जख में बांसुरीया बजावे |
शिव परिवार भी साथ में ,सरपां को है गेहणो 
धन - धन है या जलमभोम ,नाम है ककराणों ||

सर्प दोष ने दूर करे अठे बाबो हिरामल 
सांप कट्या को जहर उगले ,देव है बड़ो परबल 
पाँच की व्ह्ह धुप ध्यावना ,आवे जातरी भारी 
चढ़ा प्रसाद पताशा नारेल ,तांती बांध न्यारी |
गोठिया बाबा का गावे ,खिंच कान को त़ाणों 
धन - धन है या जलमभोम ,नाम है ककराणों ॥

सति  -जती, महात्मा निप्ज्या ई धरती क माय 
चतर कँवर ,हरिदास जी,  
दादाजी न ध्याय 
भेरुं ,माता शीतला, पितराँ का बण्या है थान 
धो ख मावस न देकर ,राखा बाको मान | 
सति जी की म्हमा न्यारी, मंदर बहुत पुराणो
धन - धन है या जलमभोम ,नाम है ककराणों ॥

मिडिल बालिका ,सिनियर,शिक्षा न्यारी न्यारी 
मिनख अठा का सीधा -सांचा ,और है ब्योहारी
दिखनादा की डूंगरी पर माता मंदर प्यारो 
घाटी में मतवालों भेरो बैठ्यो सबसू न्यारो 
नदी किना र देबी मंदर कुदरत को नजराणो |

धन - धन है या जलमभोम ,नाम है ककराणों

अंग्रेज फौज म सूबेदार पद पायो पाबुदान
पेंतालिस गांव की पंचायत म मानेता बड़ मान !
कुरीतियां क बिरुध् उन बख्त बिगुल बजायो
कन्या हत्या,अशिक्षा को जद झंडो चढ्यो सवायो !
जैपर स्टेट म नांव-गांव को लिख्यो उज्ज्वल परवाणो
धन - धन है या जलमभोम ,नाम है ककराणों !!


खेतरपाल रिगतमल भैरूं, मामलिय म्हामाई 
गुडगांवा अर ,तांतिज की जात लागती-आई।
रात च्यानणी और अंधेरी, देव पितर में बांटी
भोग भ र मायाँ को भागण, चावल दाल काठी |
जात-जडूला धोक-चूरमा, पितरां को जगराणो
धन - धन है या जलमभोम ,नाम है ककराणों ॥


ढाणी -ढहर न्यारा -न्यारा, पण परस्पर मेल
मजदूरी खेती पर निर्भर कोई रेवड़ क गेल |
बोलै कम सोचै परहित में, सेखी नही बधारै। 
आडी में आडा आवणिया, सैं का काम संवारै |
बिन बिरखा और ताल तलैया, पाणी घणो अब उंडों
प्यासी रोही अपलक उडीक, चौमासा को मुंडो |
बीती बात हुय्या पनघट, अ र पाळ, नदी को न्हाणो
धन - धन है या जलमभोम ,नाम है ककराणो ||


घुघाव मोड्यां रुंद गला सु, छतरी ताणै मोर 
गुट्टर-गूं कर चुगै कबूतर, बिखरै दाणा भोर |
भेंस बकरिया गाय मवेशी दिन उग्तानी दुव 
फोई खातर टाबर-टोली काड हथेली जोवै |
झरमर -झरमर घर धिरयाणी घा ल दही बिलाणो
धन - धन है या जलमभोम ,नाम है ककराणो ||


सब जातां को मेल अठे ,शांति को है बासो 
कोई प्राइवेट रुजगार करे ,कोई को राज म पासो 
रल मिल मनावे तीज त्योंगर, और गाँव का मेला 
गणगोरयाँ को होवे उछब,भान्त -भान्त का खे ला 
कोई शहर को बासी होगो ,और कोई देश बीराणों ।
धन - धन है या जलमभोम ,नाम है ककराणों

Thursday, February 6, 2014

ककराना के रईस सेठ दुलीचंद ककरानिया

गजेन्द्र सिंह शेखावत 
शेखावाटी की पावन धरा अनेक रणबांकुरो ,धनकुबेरो ,त्यागी -तपस्वी,महापुरुषों की क्रीडा स्थली रही है ।इस मिटटी के कण -कण में दस्ताने छुपी हुयी है ।जो की अधिकांशतःजनमानस की स्म्रति से विस्म्रत हो चुकी है ।
ककराना गाँव एक संतुलित जातिगत समीकरण वाला गाँव रहा है । पुराने समय में गाँव के काफी सेठ परिवारों का पलायन व्यापार के संदर्भ में हो चूका है । ककराना से निकले बहुत से सेठ परिवारों ने अपना टाईटल गोत्र के स्थान पर "ककरानिया"लगा लिया ।जिन्मे बहुत से परिवार आज भी चिड़ावा में निवास करते है | इसी धरा पर ही जन्मे एक सेठ थे दुलीचंद ककरानिया ।दुलीचंद अपने ज़माने के रईस सेठों की गिनती में आते थे ।ककराना की तंग गलियों से निकलकर इन्होने कलकत्ता महानगर में अपना व्यवसाय स्थापित किया ।उनका रिहायस घर उस समय की कलकत्ता की प्रमुख सुंदर कोठियो में एक थी ।कोठी के सामने सुंदर बगीचा उनके रहिसपन की बानगी ही थी ।सेठजी का मिटटी से लगाव इतना था की अपने नाम के आगे गाँव का टाइटल लगाकर ककरानिया के नाम से जाने गए ।सुनने में आता है की एक बार ग्रामीण प्रवास पर उन्होंने गाँव की सुनियोजित बसावट करने की मनसा प्रकट की ।उनकी इच्छा थी की गाँव के मुख्य रास्ते पक्के ,स्ट्रीट लाइट व् गाँव का व्यवस्थित चोपड़ बाजार हो । परन्तु तत्कालीन युवा लोगो ने अपने गाँव के वर्तमान स्वरुप को ही प्रिय बताकर इसके प्रति अनिच्छा प्रकट की ।सेठ जी इत्र- कुलीन के बहुत शोकिन थे । जनश्रुति के अनुसार उन्होंने इंदिरा गांधी को अपने निवास पर नोटों कि गड़िया जलाकर चाय बनाकर पिलाई थी । इस बात में कितनी सचाई है ,कहा नहीं जा सकता |
वर्त्तमान में भी उनका वंश परिवार अपना सरनेम ककरानिया लगाता है । उनके व्यापर के उत्पादों का चिन्ह ककरानिया नाम से है | हालाँकि उनमें से कोई गाँव में कभी आया नहीं है लेकिन उन्हें इतना पता है की उनके पुरखों की जन्म स्थली ककराना नामक गाँव रहा है ।
वर्त्तमान में भी बहुत से लोग बड़े स्तर पर व्यापारिक गतिविधियों में शुमार है परन्तु समाजभाव नगण्य सा है । आज के व्यापारी ने अपने वित्त का बड़ा हिस्सा स्व आमोद प्रमोद पर खर्च करने का शगल बना लिया , जिससे समाज भावना विलुप्त होने कि कगार पर है |