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Sunday, March 31, 2013

ककराना का महत्वपूर्ण त्योंहार -गणगौर

ककराना का महत्वपूर्ण त्योंहार -गणगौर 
ककराना गाँव का सबसे परमुख त्योंहार अगर गणगौर को कहें तो कोइ अतिशय उक्ति नहीं होगी 
।बताते है गणगौर के मेले का शुभारम्भ ४0 साल पहले लगभग किया गया था।उन सालों में कुस्ती का उन्माद चरम पर था ।सुरुवाती वर्षों में कुस्ती के दंगल व् गणगौर की सवारी निकाली गयी थी।धीरे -धीरे गाँव के तत्कालीन युवकों ने इसका विस्तार किया ।कुछ वर्षों बाद नवयुवक मंडल का गठन करके मेले की पूरी व्यवस्था उसके अधीन होने लगी ।फिर नवयुवक मंडल आदर्श स्पोर्ट्स कल्ब में तब्दील हो गया ।जिसमे खेल के साथ साथ मेले की सम्पूर्ण कार्यकारिणी गठन की गयी ।कलब में उस दौरान विभीन कार्यों के लिए साप्ताहिक मीटिंग होती थी । कलब के सदश्यों के द्वारा मेले में रात को एतिहासिक शिक्षाप्रद नाटक का अभिनय किया जाने लगा।कलब के सदस्य मेले के नाटकों की रिहर्सल करके अभिनय में जी - जान लगा देते थे । ।परन्तु १३-१४ साल के कार्यकाल के बाद कल्ब भी राजनेतिक महत्वकांक्षा की भेंट चढ़ गया।कुछ लोगों ने इस उत्कर्ष्ठ संस्था को राजनेतिक रंग देकर भंग कर दिया ।मौजूदा समय में कुछ समर्पित युवाओं के द्वारा मेले की व्यवस्था संभाली जाती है ।
गणगौर मेले में सांय कालीन सवारी के आगमन का द्रश्य सबसे ज्यादा मनोरम होता है ।शाही लिबास में सजे धजे ऊंट गाड़ी पे बिराजे इशर -गणगौर व् उनके पीछे पगड़ियों में पुरुष ,श्रंगारित महिलाए,,माथे पर मिटटी की मूर्तियों को उठाये हुए बालिकाओं का हुजूम ,आगे-आगे बेन्ड के वाद्यों से निकलती राजस्थानी स्वर लहरियां।जगह-जगह इशर गणगौर पर न्योछावरे, दोनों और संगीनों से सुसज्जित अंगरक्षक के रूप में शाही लिबास में युवक मेले की शोभायात्रा में चार चाँद लगा देते हैं । 

गणगौर मेले की विभीन गतिविधियों से गाँव में छिपी हुई प्रतिभाएं कलाकार के रूप में ,खिलाडी के रूप में व् कार्यकर्ता के रूप में निखर कर सामने आने लगी । वहीँ दूसरी और ऊंट दौड़ ,घुड दौड़ आदि प्रतियोगितायों से पशु पालकों को भी समान मिलने लगा ।मुकदर(५०किलो का गोल पत्थर) प्रतियोगिता से शारीरिक बल का प्रदर्शन होता था ।जिसको भुजबल से एक हाथ से उठाया जाता था ।वर्तमान समय में बालीबाल-क्रिकेट प्रतियोगिता का रोमांच चरम पर होता है ।विभिन्न गांवों से आमंत्रित टीमों के प्रदर्शन सांय कालीन तक चलते रहते है । विजेता -उपविजेताओ को आमंत्रित अतिथि इनाम वितरण कर मनोबल बढ़ाते है।
गणगौर का मेला सिर्फ एक मेला भर नहीं है ।ये साझा संस्कृति है पुरे गाँव को एकसूत्र में पिरोने की । ये त्योंहार है वैभव व् जीवन के मिठास की अभिवक्ति का,ये त्योंहार है स्त्रीत्व का पुरुष के प्रति समर्पण का ,ये त्योंहार है पुरे गाँव की खुशियाँ एक स्थान पर मनाने का ।
होली के दुसरे दिन से लेकर १८ दिनों तक कन्याये व् नवविवाहित स्त्रियाँ अलसुबह भोर से रात्रि तक कड़ी पूजा करती है ।इन अस्टदश दिनों में उनके द्वारा सुबह गणगौर को जगाना व्, दोपहर को पानी पिलाना, रात को विश्राम के अलग -अलग गीत गाए जाते है है । घर -घर में बन्दोरे दिए जाते है ।विवाहित स्त्रियाँ निर्जल रहकर माता का अजूणा ( उद्दीपन) करती है व् गणगौर माता को अखंड सुहाग व् सुयोग्य वर की मंगल कामनाओं के साथ पूजा जाता है । स्त्रियाँ के सोलह श्रृंगार से सज्जित रूप व् कर्ण प्रिय गीतों के मधुर स्वर से पूरा वातावरण उर्जान्वित हो जाता है ।सिर पर पानी भरा कलश और हाथों में हरी-हरी दूब तथा रंग-बिरंगे फूलों से सजी पूजा की थाली लेकर गीत गाती इन बालाओं के द्वारा गया जाने वाला एक खुबसूरत अमर गीत इस प्रकार से है -

खेलण दो गणगौर
भँवर म्हाने खेलण दो गणगौर
जो म्हारो सैयों जो है बाट
माथे न मैमद लाब
म्हारी रखड़ी रतनजड़ी
भँवर म्हाने खेलण दो गणगौर
....
वहीँ एक कवि के ह्रदय से कुछ इस प्रकार के उदगार फुट पड़ते है -

१.चेत सुमास बसंत रितु,
घर जंगल सम चाव |
गोरी पूजै गोरड़यां,
बाँवल फोग बणाव ||

बसंत ऋतु के चेत्र मास में घर और जंगल सब जगह प्रसन्नता की लहर है | स्त्रियाँ फोग (राजस्थान में होने वाला एक विशेष पौधा) का बाँवल बना कर गोरी की पूजा कर रही है |

२.जोड़ा मिल घूमर घलै,
घोड़ा घूमर दौर |
मोड़ा आया सायबा ,
खेलण नै गिणगोर ||

जोड़े आपस में मिलकर घूमर नाच नाचते है | घोड़े घूमर दौड़ते है | पत्नी कहती है , हे साहिबा ! आप गणगौर खेलने हेतु बहुत देर से आए है : 

एक विवाहिता परदेस में पति को कुछ इस प्रकार से गीत के माध्यम से आमंत्रण भेजती है -
गणगौरयां का मेला पर थे आया रहिज्यो जी ....

Saturday, March 16, 2013

शिक्षा का बेजोड़ केंद्र - माद्यमिक स्कूल ककराना (Unique center of education - Secondary School Kakarana)

गजेन्द्र सिंह शेखावत 


ककराना गाँव की शिक्षा के प्रति जागरूकता प्रारंभ से ही रही है ।हमारे अभिभावकों ने स्कूल के कार्यकलाप में शुरू से ही रूचि दिखाई ।जिसकी बदोलत यहाँ पर आने वाला स्टाफ भी गाँव की प्रशंशा करके गया है ।गाँव के लोगों ने रास्ट्रीय पर्वों के अवसर स्कूल के कार्यकर्मों में उत्साहित होकर भाग लिया है ।व् यहाँ की समस्याओं को दूर करने का यथायोग्य प्रयास भी किया है

आस -पास के गाँव दीपुरा , पदेवा,दलेलपुरा,माधोगढ,मैनपुरा, गढ़ला, आदि की पसंदीदा स्कूल हमेशा ककराना की रही है ।इन गाँव के अभिभावकों ने अपने बच्चों को इस शांति प्रिय व् अनुशाषित गाँव में प्राथमिकता से भेजा है ।

अब ५-६ सालों से शिक्षा का बाजारीकरण व् अंग्रेजी माद्यम के निजी स्कूल शहरों की तर्ज पर बनने से निजी स्चूलों में पढाना स्टेटस सिम्बल बनता जा रहा है ।
वही दूसरी और सरकारी अध्यापक भी अकर्मण्य बन गए है ।उनका भी स्कूल आना सिर्फ उपस्थिति दर्ज करवाना मकसद भर है ।नए -नए युवा आरक्षण की बैशाखी के सहारे इस पेशे में आ तो गए ।लेकिन शिक्षा के प्रति समर्पण भाव उनमे नहीं है ।फेसनेबल लिबास में आना व् जैसे -तैसे समय व्यतीत करके "फट-फटी" पर बैठकर निकल जाना ही बस उनका शिक्षक धर्म है ।उनके आचार -विचारों से शिक्षक की गरिमा कहीं भी द्रष्टिगोचर नहीं होती है ।

किसी समय में ककराना की माद्यमिक स्कूल में प्रवेस पाना प्राथमिकता होती थी । गाँव वालों के अथक प्रयास से सन १९९० में यहाँ पर सरकर ने मेट्रिक परीक्षा का बोर्ड सेंटर बनाया ।उससे पहले मेट्रिक की परीक्षा देने विभिन्न गाँवों में केन्द्रों पर जाकर देना होता था ।जिससे विद्यार्थियों को बहुत असुविधों का सामना करना पड़ता था ।
उस समय गाँव के बड़े -बुजुर्ग लोग स्कूल के आस -पास परीक्षा के दौरान बैठे रहते थे ।जिससे किसी प्रकार की अवांछित गतिविधि नहीं हो ।
अब चूँकि स्कूल उच्च माध्यमिक में कर्मोंनत हो चुकी है ।काफी नए भवनों का निर्माण भी हो चूका है ।
जहाँ तक मुझे जानकारी है कुछ शिक्षक जिन्हें आज भी याद किया जाता है -

१.मास्टर देवी सिंह - यह बहुत ही सख्त स्वाभाव के मास्टर थे ।इनका तत्कालीन बच्चों में बहुत खौफ था ।सबक याद नहीं करने की स्तथी में ये उल्टा तक लटका देते थे ,व् बेंत से सुताई भी बहुत जबरदस्त करते थे । सुद्रढ़ कद काठी के धनी मास्टर जी के समय में अनुशाशन सर्वोपरि था ।कहते है बिना भय के विद्या नहीं आती है ।उसके लिए विद्यार्थी में शिक्षक का भय होना जरुरी है ।
"छड़ी पड़े छन-छन ,विद्या आवे घन -घन "
इनके सानिध्य में पढ़े हुई लोग आज भी इनको श्रधा से याद करते है ।
इन्होने आजादी की लड़ाई में नेताजी के साथ " आजाद हिन्द फौज" में अवेतनिक देश के लिए अपनी सेवा दी । नेताजी के साथ रंगून में ४-५ सालों तक अद्रस्य रहे । इन्होने २५-३० वर्ष तक ककराना में समर्पित भाव से सेवा दी ।इन्होने अध्यापन के साथ -साथ गाँव का डाक विभाग का काम भी संभाला ।तत्कालीन समय के प्रेमभाव कारण हमारे यहाँ अक्षर मिलने आते रहते है ।

२. मास्टर नेकी राम जी- ये भी अच्छे अध्यापक रहे ।

३.मास्टर गणपत लाल वर्मा-यह प्रधाना अध्यापक थे । ये स्वभाव से सोम्य व् म्रदुभाशी थे ।इनका गाँव के प्रति बहुत लगाव था । पहला ऐसा अध्यापक देखा जो स्वयं के विदाई समारोह के भाव -विहल क्षणों में रो पड़ा था ।

4.मास्टर श्रधा राम यादव -यह सीधे - साधे व् सरल स्वभाव के अध्यापक थे ।परन्तु संस्कृत के परम ज्ञाता थे ।हमारे प्रति इनका भी विशेष अनुराग था ।

5.मास्टर रणजीत सिंह-ये एक व्यवस्थित व् अनुशाशन प्रिय प्रधाना अध्यापक थे । रात्रिकालीन डोर टू डोर विद्यार्थियों का निरिक्षण करना व् अभिभावकों से मिलना इनका हर ग्रामवासी को अच्छा लगा । इन्होने भी अपने छोटे से कार्यकाल में गाँव में अपनी अच्छी छवि बनायीं ।

6.मास्टर दिलबाग सिंह-मास्टर दिलबाग सिंह- एक सुलझा हुआ व्यक्तित्व , अंग्रेजी के अध्यापक व् स्कूल समय में अपने कर्तव्य के प्रति जवाबदार दबंग अध्यापक ।इनका भी बड़ा खौफ था ।
इन्होने गाँव की संस्कृति में अपने आप को पूर्णतया ढाल कर रखा ।एवं मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाये ।इनके प्रति भी हमारा विशेष अनुराग रहा ।विगत २-३ साल पहले इनका देहावसान हो गया था ।

7.मास्टर सत्यरूप सिंह- सामाजिक विज्ञानं के बहुत मंजे हुए अध्यापक ,विनोदप्रिय स्वभाव ।विषय को पॉइंट टू पॉइंट समझाने की अद्भुद कला 

8.मास्टर सुमेर सिंह- ये प्रधानाध्यापक थे ।इन्होने भी स्कूल के स्टाफ व् अनुसाशन को व्यवस्थित रखा ।
इनमे से देवी सिंह ,श्रधा राम जी ,दिलबाग सिंह आदि को हमने करीब से जाना है ।


9.मास्टर केदारमल स्वामी -यह अंग्रेजी के अध्यापक रहे ।इनकी पढ़ाने की शैली बहुत सुंदर थी ।ये विद्यार्थियों के साथ हमेशा मित्रवत रहे ।अब सेवानिवर्ती के बाद गाँव के विभिन्न सामाजिक मुद्दों को सुलह करवाने के सामाजिक दायित्व को निभाते है व् विकास परक मुद्दों पर विचार रखते है ।

10.मास्टर रामकुमार मीणा - गाँव की स्कूल में काफी समय तक अध्यापक रहे । मुख्य रूप से सांस्क्रतिक प्रभारी रहे ।स्पीच के मामले में इनका कोई सानी नहीं रहा ।माइक पर एक अपनी विशिस्ट शैली से ये गाँव की आवाज बन गए ।समय समय पर इन्होने गाँव के विकास के मुद्दे उठाये ।विगत कुछ सालों से अंग -प्रत्यंग के काम नहीं करने के बावजूद भी आत्मविश्वास अभी भी गजब का है ।

Saturday, March 2, 2013


रुपगो होली को डाँडो 


पूर्णिमा के अवसर पर सोमवार २५ फ़रवरी को होली का डंडा रोपा गया। इसके साथ ही मांगलिक कार्यों पर भी विराम लग गया। मंगलवार से फागुन माह की शुरुआत हो गयी है ।पौराणिक मान्यता के अनुसार माघ पूर्णिमा से फाल्गुन पूर्णिमा तक सभी मांगलिक कार्य वर्जित हैं। बदले सामाजिक स्वरूप में होली से आठ दिन पहले 19 मार्च से 26 मार्च तक होलाष्टक के दौरान मांगलिक कार्य बाधित रहेंगे। होलिका दहन 26 मार्च को होगा, वहीं 27 मार्च को धुलंडी का त्योहार मनाया जाएगा।

बदलते दौर में फाल्गुनी महक कम हो गयी है ।पहले डंडा रोपण के साथ ही होली की शुरुवात हो जाती थी ।हंसी -ठिठोली व् मजाकिया गालीबाजी के दौर चलते थे। कुम्हार समाज के लोग अपनी नृत्य स्टाइल ,व्से स्वांग बाजी से लोगों का मनोरंजन करते थे । देर रात्रि तक सुहानी रातों में गाँव व् आस -पास की ढाणियों में चंग -धमाल की स्वर लहरिया मन को आकृष्ठ करती थी |हमारी कृषि आधारित व्यवस्था से त्यौहार भी पूरी तरह से जुड़े हुए है ।रवि की फसल के पकने पर उल्लास व् मस्ती का मन किसान का हो जाता था ।
किन्तु अब सब बदल गया है! अब तो गांवों में भी होलियां अलग-अलग जलने लगी हैं। लोकगीतों और लोकनृत्यों की जगह अश्लील कानफोडू गाने व भद्दे नृत्य होली की पहचान बनते जा रहे हैं।

अब नवयुवकों को लगता है, लोकगीतों और लोकनृत्यों से जुड़े रहना पिछड़ापन है। अत: शहरी बनने की होड़ में वे एक अपसंस्कृति को पोषित कर रहे हैं।
राजपूत छात्रावास झुंझुनू में स्तिथ स्टेचू 

वीरवर शार्दुल सिंह शेखावत (झुंझुनू) 

गजेन्द्र सिंह शेखावत

महाराव शार्दुल सिंह शेखावत का जन्म सन 1738 में हुआ था ।उन्होंने मुग़ल नवाब रोहिल्ला खान को परास्त कर वर्षों से स्थापित उनके झुंझुनू अधिपत्य को ख़त्म किया ।वह वीर ,पराक्रमी व् सूक्ष्म राजनीतिज्ञ शासक थे ।उनके झुंझुनू विजय पर किसी कवि ने ये दोहा कहा -सत्र सौ सतासिये ,अगहन मास उदार ।"सादो" लिनी झुंझुनू ,सूद आठ शनिवार ।।
उन्होंने झुंझुनू पर बारह साल से अधिक समय तक शासन किया ।उनकी मृत्यु के बाद संपत्ति पांच बेटों के बीच समान रूप से विभाजित किया गया था ।जो की पांच पाना के नाम से जाना जाता हैशार्दुल सिंह जी के बहुत बहादुर और सक्षम और कुशल शासक थे. उन्होंने कई नए गांवों, शहरों, किलों और महलों को उठाया, इनके तीन रानियाँ थी । झुंझुनू  में बादलगढ़ दुर्ग, महल व् बनवाया ।  उन्होंने जल सयोंजन के लिए  विशाल बावड़ी का निर्माण अपनी प्रिये रानी 'मेडतनी जी" के नाम से  करवाया । उन्होंने व्यापार के लिए सेठो (व्यापारियों) को प्रोत्साहित किया.।
झुंझुनू व् पिलानी में उनकी याद को चिर स्मर्निये बनाने के लिए उनके वंशजों ने उनके नाम पर शार्दूल छात्रावास का निर्माण करवाया ।जहा पर उनकी स्टेचू का आनावरण पूर्व केंद्रीय मंत्री व् राजपूत नेता  स्व. कल्याण सिंह जी कालवी ने किया ।हमने भी अपनी शिक्षा यहीं छात्रावास में रहकर पूरी की है ।