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Tuesday, August 6, 2013

नाका का डुंगर" -और उससे जुडा ग्रामीण जीवन

गजेन्द्र सिंह शेखावत

ककराना गाँव को क्षेत्रफल की द्रस्ती से देखे तो मिश्रित रूप द्रस्टीगोचर होता है । गाँव के अंतर्गत लगभग १५००० बीघा का रकबा है| जिसमे से ९००० बीघा भूमि पर पहाड़,टीले व् बारुनी है| शेष ६००० बीघा सिंचित भूमि है | गाँव के पूर्व दिशा में अरावली पर्वत की पहाडियों की लम्बी श्रंखला है । इस काले पर्वत को लोग "नाका वाला डुंगर"के नाम से पुकारते रहे है ।इस पर्वत श्रंखला के आस पास भेड़ ,बकरी ,मवेशी पालको को बारह मास चारा,पेड़ों की पत्तिया आदि उपलब्द होती है । नाका वाला डुंगर की गुर्जर समाज की आजीविका में मुख्या भूमिका रही है | इनके पशुओ के "रेवड़"इस पर्वत के आगोश में अपनी उदरपूर्ति करते है |

लगभग २५ वर्ष पहले तक जब यह पर्वत जंगलात(वन) विभाग के नियंत्रण में नहीं था तब अधिकांशतः गाँव वासी इस पर्वत की लकडियो का उपयोग जलाने के रूप में करते थे ।सुबह भोर में युवकों की टोली अपने खान -पान का सामान व् पानी आदि लेकर नाका के इस पहाड़ की और कुच कर जाते थे ।नाका के इस पहाड़ की एक विशेष जगह है "साधू की गोडी "।इस स्थान पर बारहों मास स्रावित एक छोटा सा जल- श्रोत है ।इससे निकला जल रिस कर पत्थर की कुण्डी में इकठा होता रहता है । बताते है किसी समय में यहाँ एक सिद्ध महात्मा ने तपस्या की थी ।उसि के परिणाम स्वरुप इस पवित्र स्थान पर पानी का यह श्रोत बना था ।गर्मी की तपती दोपहरियों में गडरियो का अपनी प्यास बुझाने का एकमात्र श्रोत यही है । जलविहीन इस पर्वत पर इस श्रोत में से पानी का अल्प रिसाव आश्चर्यजनक व् श्रधा का केंद्र है |

भादो के महीने में अंचल के प्रसिद्ध सुंदरदास बाबा के जाने वाले पैदल मेलार्थियों का इस पहाड़ से जाने का ही शोर्ट कट रास्ता हुआ करता था | जो अलसुबह भोर में जयकारो के साथ कूच करते थे ।

आम दिनों में लोग यहाँ से लकडियो को बीनते ,और उनके सुगठित गठर बनाते थे ।पर्वत का मुख्य फल "डांसरिया" चुनते और सामूहिक मस्ती से लगभग २-३ किमी की दुरूह यात्रा को पार करते थे ।दोपहर होते-होते गाँव की सीमाओं में लकड़ियों के बण्डल सर पर रखे थके -मांदे महिला और पुरुषों का झुण्ड छोटे- छोटे टुकडो में आगे पीछे प्रवेश करता था।समय कितना तेजी से बदलता है , आज के इस सिलेंडर दौर के युवा क्या जाने तब चूल्हा कैसे जलता था ।

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