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Wednesday, May 29, 2013

पेड़ की शूल



गजेन्द्र सिंह शेखावत/27/05/2013/
 6:21PM 
 चित्र गूगल से साभार 



रामप्रसाद पिछले २ सालों से प्रदेश गए पुत्र की राह देख रहा था। क्या -क्या सपने सजोवे थे उसने ।गाँव के महाजन से विदेश भेजने के लिए उसने अपनी जमीं तक गिरवी रख दी थी ।ताकि उसके बच्चे को तंगहाली के दिन न देखने पड़े ।खुद रात दिन अपने खून को जलाकर महाजन के कर्ज का सूद हर महीने देता था ।
"लाला बस कुछ दिनों की ही बात है फिर मेरा लड़का तुम्हारी पाई -पाई चूका देगा, देखना ?"वह बड़े इत्मिनान से कहता ।
एक दिन घर के सामने नीम के पेड़ की छाँव में बैठा चिलम पी रहा था की दूर से डाकिया आता दिखाई दिया ।मन ही मन उत्सुकता जगी ।प्रदेश से बेटे का शायद मनिआर्डर आया होगा ।वह आशान्वित द्रस्ती को डाकिये पर गडाए हुए था ।डाकिये ने नजदीक आकर कहा भाई रामप्रसाद पत्र आया है ।
"भाई पढ़ कर सुना दो जरा" रामप्रसाद ने उत्सुकता वश डाकिये से कहा

बापू अम्मा को चरण स्पर्श,

में यहाँ कुशल -पूर्वक हूँ ,मेरी तरफ से आप किसी प्रकार की चिंता नहीं करे ।वो क्या है न बापू मुझे लिखने में संकोच हो रहा है मुझे यहाँ एक सस्ता घर मिल रहा था सो खरीद लिया ।इसलिए आप को पैसे नहीं भेज पाया । तुम्हारी बहु ने कहा की नया घर खरीद लेते है ।जिससे रोज -रोज का किराया का झन्झट भी नहीं रहेगा । उसके बाद बापू व् अम्मा को भी यहीं पर बुला लेंगे ।इसलिए आप ८-१० महीने पैसों का इंतजाम और कर लेना ।उसके बाद में महाजन के पैसे चूका कर आपको यहीं पर बुला लूँगा ।
आपका पुत्र
राजू

पत्र को सुनकर रामप्रसाद का शरीर शिथिल पड़ गया,वह शुन्य में टकटकी लगाये काफी देर तक देखता रहा ।जैसे जलती हुई आग में किसी ने पानी के मटके उड़ेल दिए हो ।डाकिये ने झकझोरा "अरे भाई कहाँ खो गए रामप्रसाद"
नहीं भाई कहीं नहीं बस यूँ ही बच्चे की जरा याद आ गयी ।डाकिया जा चूका था ।रामप्रसाद की पत्नी गले की असाध्य बीमारी से पीड़ित थी ।रामप्रसाद छपर में खाट को डालते हुए सोच रहा था की पत्नी से क्या कहू जिसकी दवा भी ख़त्म होने को है ।
"अजी सुनते हो क्या लिखा है लल्ला ने,पैसे भेज रहा है न" अन्दर से पत्नी की आवाज ने उसकी तन्द्रा को तोडा ।
रामप्रसाद गहरी साँस छोड़ते हुए खाट पर बैठ गया ।और सोचने लगा "क्या बेटे का मकान खरीदना अपनी अम्मा की बीमारी के इलाज से ज्यादा जरुरी था ।क्या गाँव के महाजन का कर्ज चुकाना व् घर -खर्च भेजना से ज्यादा जरुरी शहर का मकान खरीदना था ।
अब वह कल महाजन को क्या जवाब देगा ।कल पत्नी की दवा कहाँ से ल़ा पायेगा ।आज उसे अपनी परवरिश में स्वार्थ की बू आ रही थी ।अपने खून से सींच -सींचकर बड़े किये हुई पोधे की शूल उसके ह्रदय में रह रह करचुभ रही थी ।
उसने सामने से जा रहे स्कूल के मास्टर जी को आवाज लगाई ,और पत्र लिखने को कहा ।
" हम यंहा पर मजे में हैं बेटा,महाजन का कर्ज भी चूका दिया है ।तुम आराम से रहना व् बहु का ख्याल रखना ।मकान लेकर तुमने अच्छा किया तुम्हारी अम्मा का इलाज तो ८-१० महिना बाद करवा लेंगेल्ताब्तक में कुछ व्यवस्था करता हूँ ।
मास्टर जी किक्रत्व्यविमूढ़ व् हेरत से उसे देख रहे थे । हाथ में लाठी लेकर वह महाजन को अपनी जमीं का सौदा करने चल पड़ा था।

ताकि कर्ज के साथ -साथ बचे हुए पैसे से अपनी औरत का इलाज करवा सके ।     

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 categoery:-कहानी 

Thursday, May 2, 2013

ककराना का प्राचीन -लक्ष्मन जी का मंदिर


गजेन्द्र सिंह शेखावत

ककराना गाँव के मंदिरों में सबसे प्राचीन लक्ष्मन जी का मंदिर बताते है ।इस मंदिर की स्थापना का कहीं उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ है ।शायद शेखावतों का उदयपुरवाटी से निकलने के बाद ही निर्माण हुआ होगा । झुंझार सिंह गुढा के पुत्र गुमान सिंह जी को ककराना ,नेवरी ,किशोरपुरा गाँव जागीर के रूप में मिला था ।शायद उसी दौरान या उसके बाद उनके वंशजों ने इस मंदिर का निर्माण करवाया होगा । 
मंदिर को बनाने में बढ़िया किस्म का चुना पत्थर का प्रयोग किया गया था ।इस मंदिर की ऊंचाई भी इतनी अधिक की गयी की तत्कालीन समय में निचे बसे हुए गाँव में आसानी से इसके स्वरुप के दर्शन हो जाते थे ।मंदिर ककराना के ह्रदय स्थल मुख्य बाजार में स्थापित है ।मजबूत बड़े व् विस्तृत आसार,बड़ा मंडप ,मंदिर में गर्भ गृह के पास भवन, तिबारे ,निचे बड़े तहखाने बने हुए है ।"लक्ष्मण धणी" के गर्भ गृह के सामने ही हनुमान जी का मंदिर है ।मंदिर के गर्भ गृह के चहुँ और परिकर्मा बनी हुई है । मंदिर की बनावट को देखकर उन्मुखत भाव से मद खर्च का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है ।

भगवन राम ,राधा -कृष्ण ,शिव ,हनुमान आदि देवोँ के मंदिर तो प्रायः हर जगह द्रस्तिगोचर होजाते है ।परन्तु लक्ष्मण जी जिनके बिना भगवान राम की कल्पना भी नहीं की सकती ।जो कदम -कदम पर श्री राम प्रभु की परछाई बने रहे ऐसे त्यागी महापुरुष के मंदिर बहुत कम देखने को मिलेंगे । लक्ष्मण जी अपने दाम्पत्य सुख की बलि देकर भ्रातृसेवा का त्यागदीप्त जीवनमार्ग अपनाते है ।
प्रभु श्रीरामजी को ज्ञान और लक्ष्मणजी को वैराग्य का प्रतिक कहा गया है ।बगैर लक्ष्मण के राम का चरित्र कहीं उभरता ही नहीं।तुलसीदास ने राम की कीर्तिध्वजा का डंडा लक्ष्मण को माना है।
इस ऐतिहासिक मंदिर का उल्लेख उदयपुरवाटी के प्रमुख मंदिरो की श्रेणी में आता है ।तत्कालीन समय में किसी कवि ने इसका बखान अपने दोहे में कुछ इस प्रकार से किया है -
गोपीनाथ गुढा को ठाकर(भगवान) ,चुतुर्भुज चिराना को ।
मालखेत सबको ठाकर ,लक्ष्मन जी ककराना को ।।

जागीरी के समय मंदिर के भोग व् दीपदान के लिए राजपूत जागीरदारों के द्वारा लगभग ३०० बीघा उपजाऊ भूखंड प्रदान किया गया था ।जैसा की रियासत काल के समय में मंदिरों के निर्माण के साथ ही मंदिर की पूजा व् देखरेख के लिए मंदिर के नाम भूमि दान की जाती थी ।इसका हेतु यह था की मंदिर की पूजा अर्चना व् देखभाल उस भूमि से उपार्जित आय से भविष्य में होती रहे ।
मंदिर की पूजा शुरू से ही स्वामी परिवारों के अधीन रही है ।
।स्वामी परिवार ही इस भूमि को कास्त करते थे व् मंदिर की पूजा बारी बारी से सँभालते रहे है ।
काफी समय से रखरखाव पर खर्च नहीं करने से मंदिर धीरे धीरे जर्जर होता जा रहा है ।निचे से दीवारें कमजोर पड़ने लग गयी है ।जगह जगह से पलस्तर उखड़ने लग गया है ।
इतना समर्ध मंदिर होते हुए भी उपेक्षा का शिकार हो रहा है । वर्तमान में किसी एक ग्रामीण व्यक्ति की सामर्थ्य नहीं है की इस विशाल मंदिर की मरम्मत करवा सके ।इसलिए सर्वसमाज को आगे आकर व् प्रवाशी बंधुओं के सहयोग से पुन्रउद्दार के बारे में सोचने की नितांत आवशयकता है ।


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प्याऊ -कभी पुण्य का होता था काम आज है व्यवसाय


गजेन्द्र सिंह शेखावत 

जी हाँ में बात कर रहा हूँ हमारी संस्कृति में पानी पिलाने की प्याऊ संस्कृति का ।जिसमे किसी समय में प्यासे व्यक्तोयों को जगह -जगह ठन्डे पानी की मनुहार करके दोड़-दोड़ कर पानी पिलाया जाता था ।गाँवों के बस स्टैंड ,चोराहे ,शीतल छाँव के विशाल पेड़ों के निचे टाटीयों के निचे जब दूर से चलकर तपती दोपहरियों में कोई राहगीर आता था तो शीतल जल को पाकर व् छाँव में कुछ देर सुस्ता कर पुण्यात्मा को मन ही मन धन्यवाद देता था ।कहा गया है प्यासे को जल और भूखे को भोजन करने की सेवा सबसे बड़ी सेवा है ।परन्तु पिछले वर्षों में यह सेवा भावना अब व्यापार भावना बन गयी है ।आज जब भी हम कहीं सफ़र में जाते है तो १५-से २० रुपये खर्च करके पानी पिया जाता है ।यह जल भी प्लास्टिक के पाउचों में बंद मशीनों से ठंडा किया होता है जिसमे प्याऊ के मटके की शीतलता व् स्वाद कहाँ । पानी के इस व्यवसाय से पुन्य की भावना को लोप कर दिया है ।बाजारवाद ने पुन्य के अर्थ को ही बदल कर रख दिया है ।
पुराने समय में पुण्यात्मा लोग ,सेठ साहूकार ,राजा -महाराजा गाँवों व् कस्बों में कुवे ,बावड़ीयां बनवाते थे । जिससे कोई भी राहगीर उनके राज्य गाँव ,क़स्बे से प्यासा नहीं जाये ।