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Sunday, August 9, 2015

सावन में माँ मनसा यात्रा की यादें

गजेन्द्र सिंह शेखावत 

मेल-बिछोह परसपर दोनूं है जीवन का खेल। 
बड़ो मजो यात्रामें आतो ,जद जाता रेलमपेल।।
               तीन मील की विकट चढ़ाई , झरना को कळ -कळ कौल ।
               बीच राह में मिले जातरी ,जय माता दी बोल ।|
कोई लूण का मुठा लयातो कोई आटों और तेल
कोई पैसा को हिस्सों देतो ,कोई हो ज्यातो गेल ॥
               बरसां का मिलबा का वादा, यारी टीस जगाती।
               सावण को मतवालो मौसम, बाळपणै रा साथी ।
कुंडा की चादर में न्हाता ,उची छलांग लगाता
डाहढा की निझर को पाणी दाल चुरमो बणाता ।
                परबत का अंतस सु झरतो मिठो मधरो पाणी |
                मुसळ का लागी धमडका , नौपत बाज ज्याणी ॥
कुदरत का निजारां बी च,छक र लेता जीम ण
स्याणा,भोला सब मेल का ,और बिगड़ेड़ा तीवण ॥
             दुर्गम भयानक परवत बी च माता की सकलाई
             अंगुल सदृश मनसा माता ,मन म घणी है समाई ॥